Thursday 8 May 2014

भीख, भजन और दान के सहारे कटती सूनी ज़िंदगी मोहन लाल शर्मा

 गुरुवार, 8 मई, 2014 
विधवाएं, मथुरा, वृंदावन, क़तार की आख़िरी
बांके बिहारी मंदिर के पास की दुकान में भजन सुनाई दे रहा है- ‘वृंदावन की कुंज गलिन में दधि की मटकिया फोड़ गयो कान्हा बंसी वालो’..
आज वृंदावन की कुंजगलियों में न गोपियां हैं, न दही की मटकी है और न ही उन्हें कोई फोड़ने वाला. आज अगर इन गलियों में हैं विधवाएं और शून्य की ओर ताकती उनकी आंखें..
छोटी-सी तीर्थनगरी में हज़ारों की तादाद में विधवाओं का बसेरा है. यहां रहने वाली विधवाओं की संख्या कितनी है, इसका ठीक से पता लगाने की ज़रूरत शायद किसी ने नहीं समझी.
चाहे वो बांकेबिहारी मंदिर के सामने की गली हो, इस्कॉन मंदिर हो या फिर टेढ़े खंभे वाला मंदिर, सैकड़ों की तादाद में माथे पर तिलक लगाए ये उम्रदराज़ विधवाएं आपको मिल जाएंगी.
हर किसी की अपनी अलग कहानी है, अपनी अलग व्यथा है, लेकिन हश्र एक जैसा यानी अपने परिवार से दूर अलग वीरान ज़िंदगी.
ये विधवाएं यहां या तो किसी आश्रम में अपनी बाक़ी ज़िंदगी काटती हैं या फिर किसी किराए के मकान में रहती हैं.
वृंदावन का रुख़ करने वाली विधवाओं में यूं तो पूरे भारत से आईं महिलाएं हैं, लेकिन अधिकांश पश्चिम बंगाल से हैं. भारत के अलावा नेपाल की विधवाओं का घर भी वृंदावन है.
जीवन के आख़िरी पड़ाव पर वृंदावन को अपना ठिकाना बनाने वाली इन अधिकांश विधवाओं के परिवार में या तो कोई बचा नहीं या फिर परिवार की बेरुख़ी की वजह से वे यहां हैं.

दुख भरी कहानी

विधवाएं, मथुरा, वृंदावन, क़तार की आख़िरी
मां धाम में रह रही 82 साल की जमुनाबाई पांडे छत्तीसगढ़ के बिलासपुर की रहने वाली हैं. घरबार छोड़कर वृंदावन का पता पूछते-पूछते यहां पहुंच गईं. जमुना बताती हैं कि पति की मौत के बाद घर में उनका सिर्फ़ एक ही बेटा है, लेकिन अपने बेटे की हरकतों की वजह से उन्हें घर छोड़ना पड़ा.
जमुना कहती हैं, “मेरा बेटा रोज़ शराब पीकर आता था और जूते से मारता था. लड़का होने का मतलब ये तो नहीं कि हर समय सिर पर जूता मारो और मैं सहती रहूं.”
जमुना कहती हैं कि उनकी स्थिति तो 'बांझ से भी बदतर' है क्योंकि उन्होंने बेटा तो पैदा किया, लेकिन ऐसे बेटे से संतानहीन रहना ही बेहतर है. जमुना अब भगवान से सिर्फ़ यही प्रार्थना करती हैं कि वो अकेली हैं और मरना भी अकेली ही चाहती हैं.
इसी तरह रघुबीर बरसाने की रहने वाली हैं, उनके दो लड़के और चार लड़कियां हैं. वह कहती हैं कि गांव में हर रोज़ होने वाले झगड़ों के कारण वो यहां रहने चली आईं.
चैतन्य विहार महिला आश्रय सदन में सैकड़ों विधवाएं रहती हैं. इनमें से एक के छोटे से घर में एक कोने पर भगवान के चित्र सजे हैं. पूजा अर्चना का सामान है. 88 साल की मिथिलेश सोलंकी मध्य प्रदेश के विदिशा से आकर विधवा आश्रम में रह रहीं हैं. मिथिलेश को सांस लेने में दिक़्क़त है, बढ़ती उम्र और सिर पर किसी परिजन का हाथ न होने का दर्द उन्हें रह-रहकर सताता रहता है.
विधवाएं, मथुरा, वृंदावन, क़तार की आख़िरी
अपनी व्यथा बताते हुए उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आती हैं. इस सवाल के जवाब में कि वो विदिशा से वृंदावन कैसे पहुंच गईं, मिथिलेश की आंखें भर आईं.
जेठ-जिठानी को याद करके मिथिलेश कहती हैं, “मैंने ज़िंदगी भर जेठ के बच्चों को अपना माना, जब तक शरीर चलता रहा, सब कुछ अच्छा था और जब शरीर ने साथ छोड़ दिया, तो ज़िल्लत भरी ज़िंदगी कब तक सहती और अब वापस नहीं जाना चाहती. यहां तक कि बीमारी की हालत में भी नहीं.”

दया से भरता है पेट

सवाल यह है कि इनका जीवन कटता कैसे है, जीवनयापन के लिए पैसे कहां से आते हैं. इनकी आमदनी के कई ज़रिए हैं, कुछ विधवाएं तो मंदिरों के किनारे हाथ पसारे दिन भर भीख मांगती हैं और उसी से उनका पेट भरता है.
इसके बाद अगले दिन फिर से ज़िंदगी जीने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है.
विधवाएं, वृंदावन, मथुरा
आमदनी का दूसरा ज़रिया है वृद्धावस्था पेंशन, सरकारी आश्रम में रहने वाली विधवाओं को दो हज़ार रुपए मिलते हैं जिनसे इनका खर्च चलता है.
एक तीसरा तरीक़ा है, भजन गाकर पैसे कमाना, वृंदावन में कई आश्रम ऐसे हैं जहां हर सुबह और हर सांझ कीर्तन होते हैं.
सैकड़ों की तादाद में ये विधवाएं यहां भजन-कीर्तन करती हैं और इसके एवज़ में उन्हें शाम को कुछ अनाज मिलता है.
वृंदावन के व्यापारी दिनेश शर्मा बताते हैं, “भजन-कीर्तन करने वाली विधवाओं को कई जगह से टोकन मिलते हैं. इन टोकनों की क़ीमत पांच रुपए से शुरू होकर 50 रुपए तक भी हो सकती है. विधवाएं इन टोकनों से आसपास की किसी भी दुकान से अपनी ज़रूरत के समान खरीद सकती हैं. और यहां के दुकानदार इन टोकनों को उनसे लेकर मालिकों से पैसे ले लेते हैं".
बालाजी सदन में सुबह शाम भजन-कीर्तन होते हैं. कोलकाता से आई रामरानी बिस्वास किराए के मकान में रहती हैं और रोज़ भजन करने यहां आती हैं, भजन करने के साथ-साथ जीविका चलाने के लिए रामरानी दिन में तीन घरों में चौका बर्तन करती हैं.

'दर-दर की ठोकरें'

"वृंदावन में विधवाओं की तादाद का कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है. कोई इनकी संख्या पांच हज़ार बताता है, तो कोई 15 हज़ार. वृंदावन में विधवाओं की स्थिति के दो पहलू हैं. एक वह जो सामने से नज़र आता है, दूसरा वह जो नज़र नहीं आता. जो नज़र आता है उसमें दिखता है कि विधवाएं आश्रम में रहती हैं जहां स्थितियां बेहतर हैं, पर जो न नज़र आने वाला पहलू है, उसमें चिंता की बात यह है कि इन माताओं को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं. कुछ भीख मांगकर पेट पालती हैं. बीमार होने पर इलाज की कोई व्यवस्था नहीं और अपने परिवार से तो उनका संपर्क टूट ही चुका होता है. हालत बहुत दयनीय है. "
बिंदेश्वर पाठक, संस्थापक, सुलभ इंटरनेशनल
कोलकाता की ही सोनदा हलधर भले ही अकेली रहती हों, पर उन्हें इस जीवन से कोई परेशानी नहीं. सोनदा कहती हैं कि घर के नरक से तो बेहतर जगह यह है ही. सोनदा को भजन करने से चंद रुपए मिल जाते हैं और इसी से उनका गुज़ारा चल जाता है.

कहानी का दूसरा पहलू

सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक बताते हैं कि हाल ही में सदन की एक संचालिका ने भजन के एवज़ में विधवाओं को मिलने वाले पैसे छीन लिए.
पाठक बताते हैं कि विधवाओं के साथ होने वाले व्यवहार के सबसे दर्दनाक पहलू को उजागर करने वाली एक रिपोर्ट एक स्थानीय अख़बार में छपी, जिसके मुताबिक़ विधवाओं की मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जाता, उनके शव को यमुना में फेंक दिया जाता है. उन्हें खाना नहीं मिलता और वो भीख मांगने के लिए मजबूर हैं.
भले ही पूरे देश में लोकतंत्र का उत्सव यानी मतदान हो रहा हो, लेकिन यह दिन भी इनकी ज़िदंगी में कोई बदलाव का संकेत लेकर नहीं आता.
अधिकांश विधवाओं को वोट की राजनीति से कोई मतलब नहीं, क्योंकि इन्हें मालूम है कि जीते कोई भी, सरकार किसी की भी बने, उनकी हालत में कोई सुधार नहीं आने वाला.
ये राजनीति की बातें भी नहीं जानतीं. अधिकांश विधवाओं के पास वोटर कार्ड नहीं है और जिन गिनी-चुनी महिलाओं के पास है भी, वो इससे दूर ही रहती हैं हालांकि इस बार कुछ विधवाओं ने वोट भी डाले हैं.

इस सवाल पर कि देश में क्या कुछ हो रहा है, मृणालिनी कहतीं हैं उनके जीवन में तो बस अब राधा कृष्ण की भक्ति ही है, उसके सिवाय कुछ भी नहीं.
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/05/140507_vrindavan_last_mile_election2014_aj.shtml?ocid=socialflow_facebook

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