Monday 7 April 2014

मर्दवादी और असमान सामाजिक व्यवस्था में स्त्री प्रतिरोध – ‘हाईवे’: धर्मराज कुमार

APRIL 6, 2014
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https://www.youtube.com/watch?v=lbOOvLzQ6Sg#t=12
वर्त्तमान परिदृश्य में हमारे इर्द-गिर्द जितने भी विमर्श मंडराते नजर आ रहे हैं उन सबके के आक्रामक शुरुआत को सोलह दिसंबर की बलात्कार की घटना से जोड़े बगैर नहीं देखा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि उस रात को दहला देने वाली घटना तक को कई खांचों में रखकर देखा जाता है। उदाहरणस्वरूप, आलोचना के तौर पर यह भी कहा गया कि निर्भया अभिजात वर्ग से आती थी इसलिए उसके बलात्कार ने पूरे देश की राजनीति को झकझोर कर रख दिया। जबकि उसी दरम्यान दिल्ली के करीब हरियाणा में कई दलित और सामाजिक रूप से प्रताड़ित लड़कियों और महिलाओं का निर्ममता से बलात्कार किया गया और मारकर फ़ेंक दिया गया और जिसका आज तक कोई अता-पता तक नहीं है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि दिसंबर की घटना के पहले भी अनगिनत बलात्कार की घटनाएं हररोज हो रही थी और उसके बाद भी हो रही है। मगर कभी भी किसी विरोध ने इतना विकराल रूप धारण नहीं किया जिससे देश की राजनीति को हिलानी तो दूर उससे आजतक न्याय प्रक्रिया में गति तक आ सके। इसके कई कारण हैं।
मेरा उद्देश्य उस तरफ ध्यान खींचना कतई नहीं है। मेरा उद्देश्य है मुख्यधारा में इन मुद्दों से जुड़ती सवालों को उठाये जाने की तरफ ध्यान ले जाना। मैं बात कर रहा हूँ मुख्यधारा में चल रही फिल्मों और उससे जुड़े सवालों के ऊपर। फ़िल्म समीक्षा की दुनिया में ऐसा कम ही देखने को मिलता है जब कोई फ़िल्म अपनी रिलीज के बाद एक चर्चा का विषय हो या विवाद का हिस्सा हो। बल्कि तमाम विचारधारा से जुड़े लोग जब किसी फ़िल्म के ऊपर अपनी प्रतिक्रिया जताने लगे इसका मतलब है कि ऐसी फिल्में लोगों को संवाद करने के लिए विवश कर रही हैं।
मैं इम्तिआज़ अली द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘हाईवे’ की बात कर रहा हूँ जिसने बुद्धिजीवी फ़िल्म समीक्षकों को विमर्श छेड़ने पर मजबूर किया है।
27 तारीख वृहस्पतिवार को मैं अपने करीब दस साथियों के साथ जिसमें कुछ लड़कियाँ भी शामिल थी नाईट शो देखने गया। बीच-बीच में फ़िल्म के कुछ-कुछ दृश्यों पर दर्शक फब्तियाँ कसकर ‘पितृसत्ता के धरोहर’ होने का सबूत पेश कर रहे थे मगर जो लोग महिलाओं के साथ थे उनकी स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। फ़िल्म जब अपने आखिरी पड़ाव पर पहुँची तो वे ही दर्शक जो ‘पितृसत्ता के धरोहर’ होने का सबूत पेश कर रहे थे अचानक से शांत और गम्भीर थे। अंत में जब फ़िल्म समाप्त हुआ तो कई लड़कियां हॉल से बात करती हुई निकल रही थी कि जो फ़िल्म में दिखाया गया है वह किसी-न-किसी रूप में जाने-अनजाने ही सही उनके व्यक्तिगत अनुभव का छोटा या बड़ा हिस्सा रह चुका है।
इस बात ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि क्या यह बयान मात्र महिलाओँ या लड़कियों के लिए था या पुरुषों या लड़कों के लिए भी था ? अर्थात क्या हमारी पाशविक पितृसत्तात्मक मानसिकता में महिलाओँ या लड़कियों के लिए जरा भी पहले से अधिक सम्मान का भाव जागृत हुआ है ?
इस फ़िल्म की अबतक कई समीक्षाएँ प्रकाशित हो चुकी है जिसमें फ़िल्म को बद-से-बदतर करार दिया गया है या कि बतौर एक अच्छे फ़िल्म की तरह दिखाया है। पर मुझे लगता है कि ये समीक्षाएँ वो समीक्षाएं हैं जो प्रशिक्षित बुद्धिजीवी जागरूक समाज में स्वीकृत हो सकती है मगर ऐसी समीक्षाएं उस सच्चाई को नहीं झूठला सकती जिसमें बलात्कार की घटना के सबसे बड़े हिस्से का कलंक पारिवारिक रिश्तेदारों और सगे-सम्बन्धियों के सिर पर जाता है। इन फिल्मों की समीक्षाओं में निर्देशक पर यह आरोप लगाया गया है की उसने अपहरण को जायज़ ठहराया है, दूसरा बड़ा आरोप यह है की लड़की का अपहरणकर्ता के प्यार में पड़ा दिखाकर लैंगिक न्याय के साथ भद्दा मजाक है। तीसरा आरोप है कि लड़की अपने उबाऊ ऐशों-आराम के जीवन शैली से बोर होकर थोड़े दिनों के बाद वापस लौटती दिखायी जाती है। मेरे अनुसार इन तमाम समीक्षाओं को पुनर्समीक्षा की जरूरत है। फिलहाल इस फ़िल्म के माध्यम से जिन मुख्य मुद्दों पर मुख्यधारा में बहस होनी चाहिए वो शायद अभी होनी बाकी है।
बहरहाल, इस फ़िल्म में अगर निर्देशक अपहरण को जायज़ ठहराया होता तो वो अपहरणकर्ता को अन्य फिल्मों के हीरो की तरह उसे भी सर्वशक्तिमान के रूप में पेश करता जिसमें चाहे जितने भी लड़की के घरवाले-परिवारवाले आ जाये वो उन्हें मारकर परास्त कर लेता जिसके लिए हमारा बॉलीवुड जाना जाता है। मगर अफ़सोस फ़िल्म में ऐसा नहीं दिखाया गया है बल्कि अपहरणकर्ता को यह पता है कि पकड़े जाने के बाद उसे बतौर एक अपराधी की तरह सुलूक किया जायेगा और उसे मार दिया जायेगा और जो कि फ़िल्म का अंत में दिखाया गया है।  अपहरणकर्ता को कहीं से भी गौरवशाली बनाने की कोशिश नहीं की गई है, जैसा कि आम फिल्मों में अपहरण के बाद फिल्मों में अपहरण के बाद बलात्कार को दिखाया जाता है अगर मुख्य पात्र अपहरणकर्ता है तो उसे ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ दिखाया जाता है।  इस फ़िल्म में ऐसी किसी तरह की गलती नहीं की गई है।  अपहरण के तुरंत बाद जब अपहरण गैंग को यह पता चलता है कि जो लड़की अपहृत कर ली गई है वो एक सत्तासीन अभिजात्य वर्ग और जाति से आती है तो उसके तुरंत बाद अपहरणकर्ताओ का लड़की के प्रति बर्ताव बदल जाता है जबकि उसके पहले उसके साथ मारपीट तक की जा चुकी होती है। इस दृश्य में कहीं से भी न तो अपहरण को और न ही अपहरणकर्ताओं को अनुकरणीय दिखाया गया है। क्यूंकि हमारे समाज की स्त्रियों को समान दृष्टि से नहीं देखा जाता चाहे वे किसी भी परिस्थिति में हो। इस बात से मुँह चुराने में कतई कोई फायदा नहीं है जो कि फ़िल्म में दिखाया गया है। दूसरा बड़ा आरोप है लड़की का अपहरणकर्ता के  प्यार में पड़ जाना। यह एक निहायत सतही निष्कर्ष है। अगर किसी के साथ रहना अच्छा लगने का मतलब प्यार या शादी के दृष्टिकोण से देखा जाना निश्चित है तो हमारे समाज में जितने सामाजिक रिश्तें हैं उन सबको परिभाषीकरण के दुर्गम पथ से गुजरना होगा। इस फ़िल्म में बल्कि यह दिखाया गया है कि हमारे सामाजिक रिश्तों में जो ‘अंदर’ और ‘बाहर’ के बीच की धारणाएं हैं वो काफी भिन्न हैं। क्यूंकि हर परिवार में बचपन से यह शिक्षा दी जाती है कि घर के ‘अंदर’ हम सुरक्षित हैं और घर के ‘बाहर’ असुरक्षित। जबकि इस फ़िल्म में लड़की बताती है कि किस तरह से बचपन में वो शिशु यौन उत्पीड़न की शिकार हुई है। जिसकी तुलना मीरा नायर की फ़िल्म ‘ मोनसून वेडिंग ‘ से भी की जा रही है। परन्तु दोनों में एक बहुत बड़ा अंतर है जिसे शायद दरकिनार कर दिया गया है। ‘ मानसून वेडिंग ‘ रिया का उत्पीड़न होता तो है मगर वो सामाजिक व्यवहार में दबे होने के कारण या प्रतिष्ठा बचाने के कारण इसे तब तक नहीं बता पाती है जबतक यह घटना दुबारा घटने की स्थिति में पहुँच जाती है।लेकिन जब रिया अपने यौन उत्पीड़न का खुलासा करती है तो उसके अंकल को तुरंत परिवार से बाहर कर दिया जाता है। लेकिन ‘ हाईवे ‘ में जब इसी शिशु यौन उत्पीड़न का मामला वीरा अपने माँ को बताती है तो उसकी माँ मात्र चुप रह जाने को कहती है और इसमें तो उसके अंकल को पारिवारिक सदस्यता से भी बाहर नहीं निकाला जाता। इन दोनों फिल्मों में एक तारतम्यता (continuity) है और वह है शिशु यौन उत्पीड़न को एक अप्राकृतिक और कानूनी अपराध के रूप में रखकर न दिखाया जाना। अब सवाल है ऐसा क्यूँ होता है ? क्यूंकि आज भी महिला चाहे कोई भी हो पहले उसे पितृसत्ता के नजरिये से देखा जाता है। और जब तक पितृसत्ता के रखवाले को यह नहीं लगता कि महिला या लड़की के साथ बड़ा या छोटा दुर्व्यवहार हुआ है तबतक वह समान और लैंगिक न्याय (gender justice) की बात नहीं करता। इसलिए दोनों फिल्मों में अंकल को रोकने या निष्कासित करने में देर होता दिखाया गया है। ऐसी परिस्थिति में अगर एक लड़की एक ऐसे लोगों के साथ रहने की इच्छा व्यक्त करती है जो उसे चाहे किसी कारण से प्रताड़ित न कर रहा हो तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि लड़की उससे प्यार करने लगी है। जबकि महावीर द्वारा वीरा को और अपमानित न किये जाने का स्पष्ट कारण दिखाया गया है।
महावीर द्वारा वीरा का अपमान न किये जाने का मतलब कहीं से भी इस ओर संकेत नहीं करता कि वह वीरा को प्यार करने लगा है। बल्कि वह उससे डरता है क्यूंकि उसे इस तथ्य का ज्ञान है कि वीरा एक ऐसे बड़े घर से ताल्लुक रखती है जो देर-सवेर उन दोनों को ढूंढ ही निकालेंगे और उसे सजा होनी तय है। जबकि लड़की को महावीर के रहन-सहन और बोल-विचार पर काफी आश्चर्य होता है। वह सोचती है कि वो खुद तो घर इसलिए नहीं जाना चाहती क्यूंकि उतने बड़े घर में सारे लोग आडम्बर, झूठ और दिखावे की दुनिया में जी रहे लोग होते हैं। लेकिन वो जानना चाहती है कि क्या महावीर जैसे लोगों का परिवार भी वैसा ही घुटन भरा होता है या कुछ अलग। इसी प्रकरण से जुड़ा हुआ प्रकरण मुझे ‘बादल’ (2000) फ़िल्म से  याद आ रहा है जिसमें रानी (रानी मुख़र्जी) बादल (बॉबी देओल) से कहती है एक गिरफ्तार किये गए आतंकवादी को दिखाने के लिए जेल में चलने को। और तब बादल गुस्से में रानी को बहुत डांटता है और कहता है कि वो भी हमारे जैसा ही मगर सताया हुआ इंसान होता है। वीरा जैसी घर की लड़कियों के लिए ऐसे प्रश्नों का दिमाग में आना कोई नई बात नहीं है जो एक बहुत बड़ी वंचितों कि दुनिया से वाकिफ नहीं है। इसी क्रम में महावीर के बचपन की कहानी दिखायी जाती है और यह दिखाया जाता है कि कैसे एक अशिक्षित, असहाय और मजदूर औरत को हमारा समाज और परिवार सभी मिलकर प्रताड़ित करता है। महावीर को वीरा में कहीं-न-कहीं औरत की उसी प्रताड़ना दिखायी देता है और जिसका जिम्मेदार वो खुद को समझता है। यही कारण है कि वो वीरा को और अधिक अपमानित नहीं करता और उसकी हर ख़ुशी को बाद में, यह जानते हुए की उन दोनों का एक साथ बहुत दिनों का साथ सम्भव नहीं हो सकता, पूरी करने की कोशिश करता है। इस फ़िल्म द्वारा बल्कि यह भी दिखाने का प्रयास किया गया है कि हमारे समाज में अगर बुराइयाँ हैं तो उसके जिम्मेदार क्या सिर्फ वही लोग है ? क्या इसमें हमारी संरचनात्मक सामाजिक व्यवस्था का कोई दोष नहीं है ? जिसमें मनुष्य को मनुष्य नहीं समझा जाता आदमी और औरत में भेदभाव किया जाता है और औरत को सारे तरफ से शोषित किया जाता है। महावीर की बचपन की कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है। ऐसे परिस्थिति उन दो लोगों, जो  एक तरफ समाज के सबसे ऊपर के तबके में होने के बावजूद भी शोषित है और दूसरा समाज के सबसे निचले तबके में होने की वजह से शोषित है और अपराधी बनने पर मजबूर है,द्वारा साथ में रहने की इच्छा का पनपना और मानवीय भावनाओं के उदगार के मद्देनजर एक दूसरे के प्रति सम्मान भाव या साथी भाव का जागृत होना इंसानियत के ज़िंदा होने का सबूत है। महावीर जैसा अपराधी हमारे समाज की भेदभावपूर्ण सरंचनात्मक व्यवस्था का परिणाम है। वीरा द्वारा महावीर के प्रति मित्रता का प्रभाव यह नहीं दर्शाता कि वो उसे इस्तेमाल कर रही है या अपनी सुरक्षा की उम्मीद कर रही है बल्कि यह सोचती है कि जितनी घुटन भरी माहौल घर जैसी जगह में जब है तो बाहर जैसी जगह, जिसे अबतक उसे सिर्फ भयावह ही बताया गया था, से कुछ विशेष उम्मीद करना बेवकूफी है। बल्कि इसका  एक दूसरा अर्थ यह भी है कि जिस लड़की के सिर्फ देखभाल के लिए नौकर-चाकरों की कतार हो वह अपहरण जैसी खतरनाक परिस्थिति में भी अपने को सुरक्षित रखने के लिए परिस्थिति के अनुकूल ढल सकती है और अपनी अस्मिता का बचाव भी कर सकती है। औरत किसी पुरुष की मदद की मोहताज मात्र नहीं होती।
औरत जरूरत पड़ने पर ‘ विद्रोही ‘ और समय आने पर अपनी अस्मिता की रक्षा स्वयं भली-भांति कर सकती हैं।
तीसरा आरोप बहुत ही वाहियात और बेतुका है जिसमें ये कहा जाना कि लड़की अपने वर्त्तमान ऐशो-आराम की उबाऊ जिंदगी से परेशान थी और कुछ दुस्साहसिक यात्रा पर जाना चाहती थी इसलिए उसे अपहरणकर्ता के साथ अच्छा लगने लगा। जबकि फ़िल्म के प्रारम्भ में ही यह दिखाया गया है कि वीरा जैसी आधुनिक विचारों वाली लड़की शादी के आडम्बरपूर्ण रीती-रिवाजों से भागना चाहती है और स्वंत्र रूप से सांस लेना चाहती है। अपनी इतनी सी इच्छा पूरी करने के लिए मर्दों की दुनिया में मर्द से अनुमति लेकर करनी पड़ती है और जिस चीज की अनुमति मर्द नहीं देता उसे किसी-न-किसी रूप से गलत ठहरा दिया जाता है। वीरा का अपहरण भी इसी मर्दवादी दुनिया की एक कड़ी का बहुत पुराना हिस्सा है। क्यूंकि जब पेट्रोल पंप पर डाका हो रहा होता है तो उसकी जानकारी न तो वीरा को होती है और न ही उसके गाड़ी में बैठे साथी को। फिर अचानक अपहरणकर्ताओं अंदर से गोली चलाते हुए आना और सिर्फ वीरा, जो एक लड़की है, को उठा ले जाना भी उसी पुरुषवादी सोच का हिस्सा है जबकि अपहरणकर्ता यह भी देखना मुनासिब नहीं समझते कि जब एक लड़की गाड़ी से है तो गाड़ी की भी तलाशी ली जाये। बस जैसे ही लड़की दिखी उसे पहले ढाल की तरह इस्तेमाल किया और फिर उसे प्रताड़ित भी किया। वीरा के बाहर घूमने जाने से लेकर अपहरण होने तक ऐसी एक भी जगह नहीं है जिसमें यह दिखाया गया हो कि वीरा अपनी जिंदगी से ऊबी होने के बावजूद अपना अपहरण या ऐसी कोई भी अप्रिय घटना के स्वागत में तत्पर थी। बल्कि लड़की का घर से बाहर निकलते ही उसके साथ दुर्घटना हो जाना हमारे समाज में बरकरार व्यवस्था पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। और जो हमारे समाज व्यवस्था का कटु सत्य है।
पूरे देश और समाज में महिलाओं के विरुद्ध घटती घटनाओं के खिलाफ ‘ हाईवे ‘ जैसी फिल का रिलीज़ होना स्त्रीसंघर्ष आंदोलन में एक और बढ़ता हुआ कदम है जिसमे मर्दवादी स्त्रीविरोधी संरचनात्मक सामाजिक व्यवस्था पर घातक प्रहार करती है और यह दिखाती है कि चाहे जब से हो संघर्ष का बिगुल फूँका जा सकता है और विद्रोह करके ऐसी घटिया कुंठित पितृसत्तात्मक समाज से स्वतंत्र अपने पैरों पर ख़ड़े होकर एक नयी जिंदगी की शुरुआत कभी भी और अकेले ही की जा सकती है।
इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खामी यह है कि घर में रिश्तेदारों द्वारा अंजाम देनेवाली प्रताड़ना चाहे वो यौन शोषण या किसी भी प्रकार की दुर्घटना हो का हल इस फ़िल्म के माध्यम से नहीं दिखाया गया जिससे कि वैसी लड़की या महिला जो वीरा जैसी सशक्त पारिवारिक पृष्ठभूमि से न होने पर भी अपने दयनीय स्थिति से इस पतनशील पुरुषवादी समाज से सामूहिक रूप से लड़ सके। क्यूंकि वीरा भी तो अंततः एक अभिजात वर्ग और जाति की लड़की है। मगर भारत में निचली जाति, समाज और गरीब महिलाओं की स्थिति तो वीरा से भी बदतर है।
इस फ़िल्म में वर्ग-विभेद और भारतीय राज्य व्यवस्था का असल रूप भी दिखाया गया है। जब कश्मीर में दोनों शांति से बसने लगते हैं तभी अचानक महावीर को पुलिस एनकाउंटर में मार दिया जाता है। इस दृश्य को दो नजरिये से देखा जाना चाहिए जिसमें पहला है कि महावीर को शुरू से यह पता था कि वो अपराधी है और उसे कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है मगर उसे एनकाउंटर में सीधे मार गिराना सरासर गलत है और दुःख की बात तो यह है कि हमारे देश का कानून और पुलिस भी अमीर लोग या तो कॉर्पोरेट दुनिया के तौर तरीके से चलता है। जिसे इम्तिआज़ अली ने सही दिखाया है। ऐसे न जाने कितने एनकाउंटर हररोज होते हैं जिसमें अनगिनत निर्दोष मारे जाते हैं। दूसरा नजरिया यह है कि यह एनकाउंटर देश के अन्य हिस्सों में न होकर सिर्फ कश्मीर में ही क्यूँ दिखाया गया। क्यूंकि मौजूदा हालात में कश्मीर में इस तरह की घटनाओं को अंजाम देना भारतीय राज्य व्यवस्था के लिए साधारण सी बात है। पूरे प्रकरण में न्यायिक प्रक्रिया को सीधे दरकिनार कर दिया गया और यही हमारे समाज की सच्चाई है। जिसे सीधे-सीधे अपनी फ़िल्म में दिखाकर इम्तिआज़ अली ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभायी है।
निष्कर्षतः, महिलाओं की पहचान कुल मिलाकर मनुष्य और मनुष्यता की दुनिया में एक शोषित इकाई की है और जिसकी लड़ाई प्रत्येक घर, जाति, समुदाय और समाज से शुरू होनी चाहिए।
(भारतीय भाषा केंद्र ( हिंदी अनुवाद अध्ययन ), जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में एम. फिल के छात्र हैं।)
http://kafila.org/2014/04/06/%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BF/

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