Friday 25 April 2014

वोट तो लेते रहेंगे, कभी पानी भी देंगे...

आभा शर्मा

 शुक्रवार, 25 अप्रैल, 2014 
"हमारी गाय भी खारा पानी पीने को मजबूर है. मैं सुबह पांच बजे उठकर घर की झाड़-बुहारी, गाय का बाड़ा साफ़ करना, उसे चारा देना, दूध निकालना...सब काम करती हूं. उसके बाद हम पानी भरने जाते हैं. बहुत देर से जाएं तो तेज़ धूप हो जाती है, सूरज तपने लगता है और पैर के नीचे रेत."
माथे पर घड़े रखकर दो मील जाना और फिर आना, आसान नहीं है पर क्या करें?
हर तरफ़ रेत के टीले... हरियाली के नाम पर खेजड़ी, बबूल और जाल के पेड़. और खुशनुमा रंगों के नाम पर महज़ कैर के बौर और नागफ़नी की झाड़ियों के फूल.
रेगिस्तान की तपती दुपहरी में सन्नाटा तोड़ती ऊंट गाड़ी की रुनझुन. बाड़मेर ज़िला मुख्यालय से करीब 150 किलोमीटर दूर बसा है गांव जुड़ियां, ग्राम पंचायत झणकली, तहसील शिव.
26 साल की मूली सिंह इसी गाँव में छह साल पहले बहू बनकर आई. मायका चौहटन भी इसी ज़िले में है पर वहां पानी की बेरियां, टांके हैं गांव के नज़दीक. इसलिए मीठे पानी की भारी किल्लत नहीं. ससुराल में आकर देखा कि यहां तो “मीठा पानी है ही नहीं तो लाएं कहां से?”

अनमोल है पानी

मीठा पानी यानी पीने का पानी. मूली सिंह के लिए गले की प्यास का मतलब है पांवों के सहारे मीलों चलना. वह जब पानी के बारे में बताने लगीं तो हमें लगने लगा कि पानी वाकई अनमोल है.
उन्होंने कहा, ''हम लोग 1000-800 रुपए देकर मीठे पानी का टैंकर मंगाते हैं. कितने दिन चलेगा ये और इतने पैसे लाएं कहां से? सबसे मोटा खर्चा पानी का ही है."
उन्होंने कहा कि अपने बच्चों पर भी उतना खर्च नहीं करते जितना पानी के लिए. घी ढुल जाए, तो उतनी तकलीफ़ नहीं होती जितना पानी की एक बूंद बर्बाद होने से. घी तो हमारी गाय दे देती है पर पानी?
''मेरी सास भी जब से शादी होकर आईं, कई मील दूर से पानी लेकर आ रही हैं. अब मैं भी वही करती हूं. मैं क्या, पूरे गांव की सभी लड़कियों, बहुओं, औरतों को पानी लेने जाना पड़ता है- क़रीब दो मील दूर. पर वह भी खारा है. खारे पानी में साबुन लगता नहीं है, बर्तन अच्छे साफ़ होते नहीं हैं, बाल गिरते हैं सो अलग."
उन्होंने कहा कि गांव में कोई अच्छी सुविधाएं नहीं हैं पढ़ाई की. एक सरकारी स्कूल है आठवीं क्लास तक का. पर एक दिन खुलता है तो सात दिन बंद. मास्टर तो पहुंचते ही नहीं, बस यहां आती नहीं. बाहर का मास्टर यहां रहना नहीं चाहता. सूट नहीं करता यहां का खारा पानी उन्हें.

पानी को तरसते लोग

बाड़मेर ज़िले के अधिकतर क्षेत्रों में पानी की कमी है. ख़ासतौर पर खारे पानी की समस्या बहुत अधिक है. रेत के टीलों और छितरी हुई आबादी वाले इस ज़िले के आठ खंडों में से करीब छह में भूजल का बहुत दोहन हुआ है. बाक़ी इलाक़े भी संकटग्रस्त श्रेणी में हैं. भूजल में लवण की अधिक मात्रा भूगर्भीय मिट्टी की संरचना की वजह से है. जिसके कारण पानी का बहाव बाधित होता है. बाड़मेर का करीब 60 प्रतिशत इलाक़ा इसी तरह का है. 2006 में आई बाढ़ में जिप्सम और अन्य खनिजों की उपस्थिति के कारण कवास और मलवा गांव बड़े लंबे समय तक जलमग्न रहे. इन दो गांवों को छोड़कर बाड़मेर के दूसरे तमाम गांवों में जलसंकट बना हुआ है.
''हम हर चुनाव में वोट डालते हैं जिससे हमारे नेता हमें कुछ सुविधाएं दें. पर सब वादे तो खूब करते हैं पर पूरे नहीं करते. वोट लेकर चला जाए, वह नेता किस काम का."

बस वादे

उन्होंने कहा, ''वादे तो सब करते हैं- मीठे पानी का, लड़कियों के लिए स्कूल का, पर पूरा करते नहीं. आदर्श नेता तो ऐसा ही होना चाहिए न! उसका कर्तव्य तो यही है पर सब मुकर जाते हैं."
मूली सिंह ने कहा कि आखिर प्रजातंत्र क्या है? यही न कि जनता नेता को सोच-समझकर चुने और हमारा काम नहीं करे तो अगली बार उसे बाहर कर दे. हर किसी को यह स्वतंत्रता है कि वो अपनी मर्ज़ी से वोट दे.
''हम इस चुनाव में देखकर वोट देंगे कि हमारा नेता हमारे लिए पानी लाएगा या नहीं लाएगा. हम ऐसे को ही चुनेंगे जो वादा पूरा करे. पर क्या कह सकते हैं वो पूरा करेंगे या नहीं? हम उनके अंदर झांककर तो देख नहीं सकते."
मूली सिंह ने कहा कि वोट में बड़ी ताक़त तो ज़रूर है, एक भरोसा है. नेता कैसे बनते हैं? जनता के वोट से ही तो. पर फिर भी जनता को ही धोखा देते हैं. कहते हैं आपको घड़ा लेकर बाहर नहीं जाना पड़ेगा, मीठा पानी मिलेगा पर फिर पांच साल के लिए ग़ायब.
''रेगिस्तान में सबसे पहली बड़ी ज़रूरी चीज़ है मीठा पानी. फिर बिजली. बिजली होगी तो बच्चे पढेंगे. उसके बाद सड़क. बाक़ी पैसे होंगे तो लोग सब सुविधा की चीजें ख़ुद ही जुटा लेंगे. पर सड़क तो लोग ख़ुद बना नहीं सकते, पाइपलाइन ख़ुद डाल नहीं सकते. यह सब तो सरकार के ही हाथ में है."

फिर भी अच्छा है गांव

महेश पनपालिया, सामाजिक कार्यकर्ता

बाड़मेर का भौगोलिक क्षेत्र बहुत बड़ा है. इलाक़े में औसत से कम वर्षा होती है और आबादी बहुत छितरी हुई है. इसलिए अभी तक कई जगह पाइपलाइन से पानी नहीं पहुंचा है. नर्मदा नहर और राजस्थान नहर जैसी बड़ी महत्वाकांक्षी योजनाओं का भी लाभ एक चौथाई बाड़मेर को भी नहीं मिला है. समस्या की सबसे बड़ी वजह स्थानीय जनप्रतिनिधियों में इच्छाशक्ति की कमी है. आज़ादी के बाद अब तक किसी ने गंभीरता से इस समस्या की ओर ध्यान नहीं दिया है.
उन्होंने कहा, ''हमारा गांव भी अच्छा बने, सबको सुविधाएं मिलें, बस यही चाहते हैं. परेशानियां तो हैं पर मैं निराश नहीं हूं. उम्मीद तो है कि कभी तो कोई नेता भगवान बनकर ज़रूर आएगा. लोग कहते हैं शहर में होते तो अच्छा होता क्योंकि वहां सुविधाएं हैं. पर शुद्ध-खुला वातावरण छोड़कर कोई शहर क्यों जाए? गांव तो बहुत अच्छा है. मुश्किलें हैं वो अलग बात है."
''अपना गांव छोड़कर शहर जाना कोई अच्छी बात नहीं है. शहर तो मजबूरी में जाते हैं कमाई के लिए. मेरे पति भी गए हैं. मैं सास-ससुर बच्चों को लेकर गांव में रहती हूं."
मूली सिंह ने कहा, ''हम शहर क्यों जाएं? हमारे गांव में ही सब सुविधाएं होनी चाहिए. यहां की मिट्टी में हमारे जड़ें हैं. हमारे बच्चों ने यहां पहली किलकारी ली है, आंखें खोली हैं, हमने उनका जन्मदिन मनाया है, कितनी सारी यादें इस मिट्टी से जुड़ी हैं."
''मेरे दो बेटे हैं. उन्हें खूब पढ़ाना चाहती हूं. मेरी और मेरी सास की उम्र तो पानी भरने में ही निकलती जा रही है. सोचती हूं कि कम से कम मेरी बहुओं के साथ तो ऐसा न हो."
उन्होंने कहा, ''मेरी उम्मीद है कि कम से कम अगली पीढ़ी की ज़िंदगी तो पानी लाने में ही ख़त्म न हो. परेशानियां तो हैं पर मैं निराश नहीं हूं. उम्मीद तो है कि कोई नेता भगवान बनकर ज़रूर आएगा. कभी तो वो सुबह आएगी.''
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/04/140425_last_mile_rajasthan_barmer_electionspl2014_pk.shtml?ocid=socialflow_facebook

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