Saturday 28 December 2013

दमनकारी पितृसत्ता की परतें

Friday, 27 September 2013 10:56
विकास नारायण राय

जनसत्ता 27 सितंबर, 2013 : ग्वालियर की एक कार्यशाला में एक कार्यकर्ता ने चंबल क्षेत्र में राज्य सरकार के ‘बेटी बचाओ’ अभियान से चिढ़े अभिभावक की प्रतिक्रिया बताई, ‘‘का हम अपनी मोढिन को मार न सकत।’’ मोढी यानी बेटी। क्या हम अपनी पत्नी को भी नहीं पीट सकते; यह हर भारतीय मर्द की अंदर की आवाज होती है। हर बाप अपनी बेटी को संपत्ति से वंचित करता ही है।
हरियाणा में रोहतक के घरणावती गांव में परिजनों द्वारा अपनी बीस वर्ष की लड़की और उसी गांव के उसके तेईस वर्ष के प्रेमी की पाशविक हत्या में स्त्री-विरुद्ध हिंसा के सामाजिक डीएनए में गहरे उतरी, पूरी तस्वीर देखी जा सकती है। यहां तक कि इस संदर्भ में उन उपायों की भी परख की जा सकती है, जो दैनिक हिंसा के ऐसे हौव्वों से मुक्ति दिला सकते हैं। स्त्री को भी और समाज को भी।
देश की राजधानी के ऐन पड़ोस में हुए इस नृशंस कुकृत्य में बहुत कुछ स्तब्धकारी है। पहली नजर में अबूझ लगता है कि हत्यारे पिता, चाचा, भाई के व्यवहार या भंगिमा में कोई मलाल नहीं नजर आता। उनके खाप-समाज में भी बजाय किसी हताशा या पश्चात्ताप के एक आपराधिक षड्यंत्रकारी चुप्पी भर है और वहां जीवन सामान्य ढर्रे पर चलता दिख रहा है। कमरे में अनायास घुस आए इस हाथी को राजनीतिक हलकों द्वारा अनदेखा करने की परंपरा इस बार भी बखूबी चल रही है। न कहीं मोमबत्ती जुलूस है; न हत्यारों को फांसी देने की मांग और उत्तेजित प्रदर्शन। पुलिस, अपराध की छानबीन में सहयोग न मिलने का रोना रो रही है। अंत में सबूतों के अभाव में हत्यारों को सजा भी नहीं मिलनी; जैसा कि ऐसे मामलों में होता आया है।
दरअसल, बलात्कार जैसी यौन हिंसा पर जमीन-आसमान एक करने वाले समाज और राज्यतंत्र के लिए घरणावती जैसी लैंगिक हिंसा से मुंह फेरना आम बात है। हत्यारों की मनस्थिति में, घर से प्रेमी के साथ चली गई बेटी को कपटी आश्वासन पर कि दोनों की शादी कर दी जाएगी, वापस गांव बुला कर मार देना सामान्य बात हुई। आखिर उनका अपनी बेटी से रोजाना का संबंध भी तो कपटपूर्ण ही रहता है- पहनावा, स्वास्थ्य, स्वच्छंदता, मित्रता, करिअर, संपत्ति, विवाह आदि कमोबेश हर मामले में। ये हत्यारे अपने समाज के दिलेर हीरो भी हैं कि उन्होंने इस कपट को समय पड़ने पर अंतिम परिणति तक पहुंचाने की ‘हिम्मत’ दिखाई है; समाज की ‘इज्जत’ बचाई है।
इसके बरक्स सोचिए, क्या लड़की का परिजनों में अगाध विश्वास हमें स्तब्ध करता है? वह उनके विश्वासघात का कितनी सहजता से शिकार हो गई! बहकाने पर गांव वापस आ गई और प्रेमी को भी साथ ले आई- सीधे मौत के मुंह में। क्या परिजनों के छल में उसका अंधविश्वास भी स्वाभाविक नहीं! आखिर उसे परिवार में कदम-कदम पर उसके साथ हो रहे प्रत्यक्ष/ प्रच्छन्न भेदभाव के बीच ही तो बड़ा किया गया था, यह बताते हुए कि वह सब उसके भले की बात है। उसकी हत्या उसके साथ हो रही उसी हिंसा की अंतिम परिणति रही। परिवार, समाज से उसका नाता ‘चुप्पी’ का था। इसीलिए वह चुपचाप घर से चली गई थी। इसीलिए वह चुपचाप मार दी गई। उस जैसी हजारों-लाखों लड़कियां हैं; किस-किस को हीरो बनाएं?
राजनीति के सत्ता केंद्र भी बखूबी जानते हैं कि ऐसे समाजों को पुरुष ही चला रहे हैं और महिलाएं उनकी जूती पर रहती हैं। जब मामला बलात्कार जैसी यौन हिंसा का होता है तो पितृसत्ता के अहं को ठेस लगती है और दोषियों को ऐसी सजा का मुद्दा, जो सारे समाज के लिए सबक हो, सभी का साझा मुद्दा हो जाता है। जब घरणावती जैसी लैंगिक हिंसा सामने आती है, जिस पर पितृसत्ता की मुहर लगी हो, तो राजनीतिकों के लिए तटस्थ रहना ही लाभदायी विकल्प बन जाता है।
एक टीवी चैनल पर हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने घरणावती हत्याकांड पर कहा, ‘कानून अपना काम करेगा।’ पर वह कानून है कहां, जो अपना काम करे? भारतीय दंड संहिता में हत्या की सजा के लिए धारा 302 है, जो लालच, वासना, ईर्ष्या, आवेश जैसी भावनाओं में बह कर किए गए मानव वध के लिए होती है। पर लैंगिक हत्याओं का संसार इनसे परे है। इसके लिए जरूरी डीएनए एक अलग सामाजिक प्रक्रिया से तैयार होता है। इस डीएनए की एक ही काट है- स्त्री का लैंगिक सशक्तीकरण। ऐसा सशक्तीकरण कि वह अपने सिर पर लादा गया ‘इज्जत’ का बोझ खुद उतार कर दूर फेंक सके। तब, जिनकी ‘इज्जत’ जाती है वे आत्महत्या के लिए स्वतंत्र होंगे, न कि स्त्री की हत्या कर दनदनाते घूमने के लिए।
यौनिक हिंसा से निपटने के दंड विधान पर न्यायमूर्ति वर्मा समिति ने इसी वर्ष, दिसंबर 2012 के दिल्ली बलात्कार कांड के व्यापक जन-असंतोष के संदर्भ में संस्तुतियां दीं, पर लैंगिक हिंसा का क्षेत्र अछूता ही छोड़ दिया गया है। यानी स्त्री के दैनिक जीवन में हिंसा की जड़ें ज्यों की त्यों बनी हुई हैं।
इन जड़ों को काटना जरूरी है। ऐसे कानून लाने की जरूरत है, जो पुरुष और स्त्री के बीच की लैंगिक असमानता पर निर्णायक प्रहार कर सकें। उन कानूनी फैसलों को न्याय-व्यवस्था के हर मंच के लिए स्थायी मार्गदर्शक बनाना जरूरी है, जो लैंगिक हिंसा की शिकार स्त्री के पक्ष में सुनाए गए हैं।
हरियाणा के ही भिवानी जिले

की एक साहसी महिला सेशन जज ने इसी वर्ष दो ऐसे हत्यारों को, गवाहों के मुकर जाने के बावजूद, परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर, फांसी की सजा दी, जिन्होंने दिन-दहाड़े गांव में अपनी दो रिश्तेदार महिलाओं को बदचलन घोषित कर सार्वजनिक रूप से लाठियों से मार डाला था। इनमें से एक हत्यारा बलात्कार के अपराध में कारावास की सजा काट रहा था और पेरोल पर गांव आया हुआ था। पितृसत्ता की ‘नैतिकता’ से हमें इसी तरह निपटना होगा।
दिल्ली बलात्कार कांड के उस सफाई वकील का उदाहरण लीजिए, जो सरेआम चिल्ला कर दावा कर रहा है कि उस कांड की पीड़ित लड़की के स्थान पर अगर उसकी बहन अपने पुरुष मित्र के साथ घूम रही होती तो वह बहन को जिंदा जला देता। वकील क्या, अगर इस वहशियाना कांड में फांसी की सजा पाए चारों दोषियों के सामने यही प्रश्न रखा जाए, तो वे भी पितृसत्ता के ‘नैतिक’ मंच से वही दावा करेंगे, जो वकील ने किया है। यह पितृसत्ता के डीएनए का ही असर है कि वकील ने भी लड़की को जला कर मारने की बात की, पर साथ के पुरुष-मित्र का खयाल भी उसे नहीं आया। इसी तरह घरणावती कांड में भी लड़की का परिवार सक्रिय हुआ और नृशंस हत्याएं कीं, लड़के का परिवार प्रेमी युगल के गांव से चले जाने पर भी निष्क्रिय रहा।
जमीनी सच्चाई यही है कि ऐसे कानून ही नहीं हैं, जो लिंग स्टीरियोटाइप का दमन कर और स्त्री का हाथ पकड़ कर उसे सशक्तीकरण की राह पर ले जा सकें। अचेत को सूचनाओं से लाभ नहीं पहुंचता, न अशक्त को कसरत रास आती है। उन्हें पहले अपने दिमाग से सोचने लायक और अपने पैरों पर खड़े होने लायक होना जरूरी है। इसी दिशा में ले जाने वाले कानून चाहिए। और ऐसी ही समझ भी! ‘कानून’ अगर महिला सशक्तीकरण का एक पहलू होगा तो ‘समझ’ अनिवार्य रूप से दूसरा!
एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि दिखावटी, बनावटी, मिलावटी, सजावटी कानूनों/ उपायों/ रिवाजों से स्त्री का सशक्तीकरण नहीं हो पाया है। राखी-दहेज-वस्त्र-शील उसके कवच नहीं बन सके हैं। उसे महिला थाना नहीं, हर पुलिस इकाई में लिंग-संवेदी वातावरण चाहिए। उसे आरक्षण नहीं, हर रोजगार में समान दावा चाहिए; उसके लिए महिला शिक्षण संस्थाएं नहीं, हर तरह का ज्ञान चाहिए। उसे केवल महिला नहीं, श्रेष्ठतम प्रशिक्षक और चिकित्सक चाहिए।
उसे महिला बैंक नहीं, हर तरह की आर्थिक पहल में जगह चाहिए। उसे दान-खैरात नहीं, अपने हक चाहिए। उसे नैतिक उपदेश नहीं, सांसारिक विवेक चाहिए। मध्यप्रदेश सरकार ने तो राज्य के महिला विभाग का नामकरण ही ‘महिला सशक्तीकरण विभाग’ कर दिया है पर उनकी ‘लाडली’, ‘कन्यादान’ जैसी पहल पितृसत्ता को ही मजबूत करती हैं।
महिला सशक्तीकरण कैसे हो? कानून के स्तर पर और समझ के स्तर पर। कानून के स्तर पर एक नया लैंगिक दंड विधान बनाना होगा। इसके अंतर्गत स्त्री का हर अधिकार अहस्तांरणीय होगा। या तो स्त्री उसका उपयोग करेगी, अन्यथा वह राज्य में विलय हो जाएगा। स्त्री को मिलने वाली हर राहत ‘रीयल टाइम’ में होगी, चाहे वह घरेलू हिंसा से मुक्ति हो या फिर कार्यस्थल पर होने वाले लैंगिक उत्पीड़न से, जो स्त्री के यौनिक उत्पीड़न की जमीन तैयार करता है। इस दंड विधान में न्याय व्यवस्था के हर इंटरफेस, पुलिस, काउंसलिंग, अदालत, क्षतिपूर्ति, पुनर्वास, सभी के लिए पीड़ित के पास चल कर जाना जरूरी होगा, समयबद्ध रूप से।
घरणावती जैसे मामलों में, जहां सारा समाज मूक षड्यंत्र में शामिल है और सारे सबूत नष्ट कर दिए गए हैं, खुद को निर्दोष सिद्ध करने की जिम्मेदारी परिजनों की होगी। अभियोजन पक्ष के लिए केवल यह स्थापित करना काफी होगा कि लड़की की मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में हुई है।
समझ के इस स्तर पर कि लैंगिक उत्पीड़न की समाप्ति ही स्त्री को हर प्रकार की हिंसा से मुक्त करेगी, सारे भारतीय समाज को शामिल करना होगा, सबसे पहले अपराध-न्याय व्यवस्था से जुड़े तमाम लोगों को। कानून जरूर संवैधानिक मापदंडों पर कसे जाते हैं, पर कानून लागू करने वालों में ‘संवैधानिक अनुकूलन’ का व्यापक अभाव है। हम ‘कानून का शासन’ का लाख गुणगान करें, पर पीड़ित के लिए ‘कानून की भूमिका’ निर्णायक होती है। घरणावती जैसी हत्याएं केवल हरियाणा या उत्तर भारत के राज्यों तक सीमित नहीं हैं। सारे देश में एक जैसा चलन है।
हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब दूसरों से केवल इस तरह भिन्न हैं कि यहां ऐसे कुकृत्यों को संस्थागत रूप से सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है; अन्य जगहों पर यह व्यक्तिगत या कुनबागत है। समाज में ‘समझ’ का अभियान पिताओं की भी पितृसत्ता की विसंगतियों से उसी तरह रक्षा करेगा, जिस तरह बेटी की।
घरणावती जैसे कांड हरियाणा के परिदृश्य में इतने दुर्लभ नहीं हैं। कुछ वर्ष पहले रोहतक के ही एक अन्य गांव बहूजमालपुर की एक कमजोर बेटी ने परिवार द्वारा हिंसक प्रतिरोध की आशंका के चलते, अपने प्रेमी के सहयोग से सात परिजनों की जहर देकर हत्या कर दी थी। यह भी पितृसत्ता की जय थी। पितृसत्ता के पूर्ण दमन की चुनौती ‘कानून’ और ‘समझ’ के लिए और टालना लोकतंत्र पर घातक चोट सरीखा होगा।

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