Saturday, 28 December 2013

तार तार भरोसा

Wednesday, 18 December 2013 10:10
श्रीश पांडेय
जनसत्ता 18 दिसंबर, 2013 : इन दिनों टीवी में एक विज्ञापन प्रसारित हो रहा है- ‘इज्जत (साख) बड़ी मेहनत और मुश्किल से आती है और एक बार चली गई तो फिर लौट कर नहीं आती। यानी साख बनाना जितना कठिन है, उससे मुश्किल है उसे बरकरार रखना। इसलिए इन दिनों देश-दुनिया में महंगाई, असुरक्षा के अलावा सबसे बड़ा संकट है, किसी व्यक्ति या संस्था की साख का संकट। साख किसी के बारे में वह अवधारणा है जो उसके भरोसे को कायम रखती है। बाजार में व्यक्ति की साख अच्छी हो तो उसे धन लेने और देने में कोई महाजन-व्यापारी संकोच या डर का अनुभव नहीं करता। यह साख कई तरह की हो सकती है। मसलन, बैंकों की साख, हुंडी की साख, मीडिया की साख, समाजसेवियों, नेताओं और धर्मगुरुओं की साख आदि।
बहुत दिन नहीं हुए जब जाने-माने कथित संत आसाराम को धर्म की आड़ में यौन शोषण और विश्वासघात करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। एक क्षुद्र हरकत ने उन्हें न सिर्फ सलाखों के पीछे धकेल दिया, बल्कि इतने सालों में जो नाम, इज्जत, शोहरत मिली थी, वह पल झपकते ही नष्ट हो गई। थोड़ा पीछे जाएं तो नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश के एक मंत्री अमरमणि त्रिपाठी ने कवयित्री मधुमिता शुक्ल के मोह में अपना सब गंवा दिया। हरियाणा के बहुचर्चित मंत्री गोपाल कांडा ने जूता बेचने के व्यापार से लेकर सरकार के कारोबार में शामिल होकर समाज में एक बड़ा मुकाम हासिल किया था। मगर गीतिका के साथ उन्होंने जो किया, उससे सब कुछ मुट्ठी में बंधी रेत की तरह फिसल गया। नारायणदत्त तिवारी की डीएनए जांच और उससे हुई बदनामी ने उनसे क्या कुछ नहीं छीन लिया। ऐसी घटनाओं पर विस्तृत रिपोर्टिंग करने वाले ‘तहलका’ के एक चर्चित स्तंभ तरुण तेजपाल अपनी ही एक मुलाजिम के यौन उत्पीड़न में ऐसे उलझे कि उनकी साख
भी तार-तार हो गई।
स्त्री के खिलाफ अत्याचार और शोषण का इतिहास बेहद बर्बर रहा है। कई बार ऐसा लगता है कि इसे कानून और बंधन के बाहरी दबावों से निषिद्ध नहीं किया जा सकता। अगर केवल कानून से इस पर काबू पाया जा सकता तो कई वैसे देशों में, जहां इस अपराध की बेहद कठोर और अमानवीय सजाएं मुकर्रर हैं, वहां ऐसे अपराध नहीं होते। पर ऐसा नहीं है। इसके बावजूद इस बहाने से कानून को लचर नहीं छोड़ा जा सकता। कठोर कानून भय का वातावरण बनाता है, जिससे अपराधियों में डर और अपराधों में अपेक्षया कमी आती है। एक अहम सवाल इन घटनाओं के नेपथ्य में है, जो अक्सर या तो उठाया नहीं जाता या फिर उसे स्त्री स्वातंत्र्य के पर कतरने की नकारात्मक विचारधारा के तौर पर देखा जाता है। हमारा मानना है कि कई मामलों में अगर स्त्री तय कर ले कि उसे ऐसे बहकावों में आना ही नहीं है, जो उसके शोषण का कारण बन सकते हैं, तो इस समस्या का अस्सी फीसद हल केवल इसी संकल्प से निकल सकता है। लेकिन समस्या के मूल में जाने के बजाय उसकी शाखाओं में लग रहे रोगों पर कानून और पहरों की तलवार चलाई जाती है। लेकिन इस छंटाई के बाद हर बार उस ग्रंथि का प्रस्फुटन हो जाता है।
स्त्री-पुरुष संबंधों में आज जो अविश्वास, यानी साख का संकट है, वह कोई नई परिघटना नहीं है। स्वभाव या वृत्ति ऐसी अवस्था है, जो सहज ही नहीं बदल सकती। लेकिन सभ्य समाज के बीच चैन की सांस लेने की उम्मीद करने वाला हर व्यक्ति अपनी ओर से उस आबोहवा के लिए पहल करेगा।

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