Saturday 28 December 2013

स्त्री विरोधी हिंसा की जमीन

Thursday, 12 September 2013 10:42
विकास नारायण राय
जनसत्ता 12 सितंबर, 2013 : सोलह दिसंबर के दिल्ली के चर्चित बलात्कार कांड की बाबत अदालती फैसला आ गया है। इस फैसले के बरक्स स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा ज्यों की त्यों जारी है। सारे समाज को उद्वेलित करने वाले इस कांड के बाद यौनहिंसा से संबंधित कानूनों की समीक्षा की जरूरत महसूस हुई और इसके लिए केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की अध्यक्षता में समिति गठित की। न्यायमूर्ति वर्मा समिति की कठोर संस्तुतियां आर्इं और संसद द्वारा पारित कड़े संशोधन भी लागू हो चुके हैं। तो भी स्त्री की आज की दु:स्वप्न जैसी स्थिति हम सभी को याद दिलाने के लिए पर्याप्त है कि पुरुष-आश्रित राखी-व्यवस्था या स्त्री-छुपाऊ घूंघट/बुर्का व्यवस्था की तरह ही अपराध और दंड पर आधारित कानून-व्यवस्था भी कुछ खास नहीं कर पा रही है।
ऐसे पांच मुख्य कारण देखे जा सकते हैं, जो स्त्री पर होने वाली यौनिक हिंसा के चलते रहने के पीछे हैं। दोषियों की तुरंत गिरफ्तारियों और सजाओं के बावजूद, ऐसे मामलों के विरोध में सामाजिक ऊर्जा के निरंतर विस्फोटों के बावजूद, मीडिया में व्यापक छानबीन और संसदीय आक्रोशों के बावजूद, और उपरोक्त दंड-विधानों के लागू होने पर भी, यौनिक हिंसा के सतत भय से मुक्ति नहीं है।
पहला कारण है कि लैंगिक अपराध, जो यौनिक अपराध की जड़ में हैं, दंड-संहिता के रडार पर ही नहीं हैं। दूसरा कारण है, समाज में हो रहे यौन-विस्फोट और उपलब्ध यौन-शिक्षा के बीच की लंबी-चौड़ी खाई। तीसरा और चौथा कारण पितृसत्ता के ही दो पहलू हैं- मर्दाने-दिखावटी उपायों का सुरक्षा तंत्र और लैंगिक चेतना से शून्य अपराध-न्याय व्यवस्थाकर्मी। पांचवां कारण है, भारतीय समाज में पुरुष का ऐसा पोषण और अनुकूलन, जो स्त्री के लैंगिक उत्पीड़न और शोषण पर फलता-फूलता रहा है, और पुरुष को संभावित यौन अपराधी बन जाने का झुकाव देता है।
मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में एक संबद्ध कारक यह भी है कि सारे देश से विविध पृष्ठभूमियों वाले आगंतुकों को वहां की जीवन शैली से परिचय कराने वाले संवेदी मंच नहीं हैं। एक तरह से यह समाज में यौन शिक्षा के अभाव का ही विस्तार है। कहने को स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा को लेकर कानूनों की कमी नहीं है, पर उनसे न तो अपराधियों पर अंकुश लगता है और न ही पीड़ितों को राहत मिलती है। कारण, इन कानूनों का इतना पेचीदा होना है कि वे अपने उद्देश्य तक सीधे रास्ते पहुंच ही नहीं सकते। ‘कानून का शासन’ की चमक अदालती निर्णयों में तो कौंधती रहती है, पर ‘कानून की भूमिका’ हिंसक अंधेरगर्दी से पीड़ितों को कुछ खास राहत नहीं दिला पाती।
अपराध-न्याय व्यवस्था के बढ़ते मर्दानेकरण से भी शायद ही कोई मदद मिली हो। दंड क्षमता, राज्यकर्मियों की जवाबदेही, पुलिस की उपस्थिति और पेशेवर कौशल पर राज्यतंत्र का जोर एक सीमा तक ही परिणाम दे सकता है। क्योंकि इन कदमों में लैंगिक समानता और स्वतंत्रता के मुद््दों की उसी तरह अनदेखी की गई है जैसे पारंपरिक रूप से सारा जोर केवल स्त्री की यौनिक पवित्रता पर हुआ करता था। इसी के समांतर महिला थानों और लाडली स्कीमों जैसे दिखावटी या सजावटी किस्म के उपाय हैं, जो स्त्रियों को अलग-थलग या आश्रित रख कर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहते हैं। ये न तो स्त्रियों के लिए समान अवसरों और अधिकारों की बात करते हैं और न उन्हें निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी और सामयिक विवेक के लिए तैयार करते हैं।
यह विसंगति नहीं है कि अधिकतर यौनिक हमले उन्हीं लोगों द्वारा किए जाते हैं जिनका पीड़ितों से नाता भरोसे वाला होता है- अभिभावक, रिश्तेदार, पड़ोसी, रखवाले, शुभचिंतक, पुरुष-मित्र, अध्यापक, डॉक्टर, कोच, मार्गदर्शक, राजनेता, पुलिस, वकील, विश्वासपात्र, आध्यात्मिक गुरु आदि। वे ऐसा इसीलिए कर पाते हैं कि पीड़ित को यौनिक मामलों में ‘नासमझ’ और ‘खामोश’ रहना ही सिखाया जाता है। उसका पालन-पोषण उसके लिए शायद ही कोई बच निकलने का रास्ता छोड़ता है। यही प्रमुख कारण है कि राज्य के लिए भी ऐसे मामलों में रोकथाम के उपाय कर पाना संभव नहीं होता।
यह भी कोई विसंगति नहीं कि यौन अपराधियों की कोई खास पहचान नहीं होती। स्त्री, जाने-पहचाने सहकर्मी के साथ भी उतनी ही असुरक्षित हो सकती है जितनी एक अपरिचित सहयात्री के हाथों। उसे परिवार में भी उसी तरह स्वयं की सुरक्षा पर खतरा हो सकता है जिस तरह बाहरी दुनिया में। मर्द का यौनिक उच्छृंखलता के रास्ते पर चल पड़ना इसीलिए स्वाभाविक बन जाता है, क्योंकि वह स्त्री के लैंगिक शोषण में तो लिप्त होता ही है।
ऐसे बहुतायत संभावित अपराधियों से सामना होने पर स्त्री को उसका लैंगिक सशक्तीकरण ही बचाएगा, न कि कानून-व्यवस्था की मशीनरी बचाएगी। दिल्ली में हुए उस बलात्कार कांड के दौर को याद कीजिए। तत्कालीन पुलिस आयुक्त ने कहा था, ‘हम और भला क्या करते!’
देखा जाए तो दिल्ली पुलिस ने खासी पेशेवर क्षमता दिखाई थी। मौके पर पहुंचने, पीड़ित को अस्पताल ले जाने, तमाम बयानात लिखने और साक्ष्य जुटाने, नामालूम अपराधियों को तुरंत पकड़ने और केस को अदालत में भेजने और अपराधियों को सजा दिलाने की पैरवी करने, हर पक्ष में उनका

योगदान प्रशंसनीय कहा जाएगा। पर उस दौर में दिल्ली में शायद ही ऐसा कोई नागरिक मिलता, जो पूरी तरह से दिल्ली पुलिस को कोस नहीं रहा था।
दरअसल, एक लोकतांत्रिक समाज में पेशेवर क्षमता ही अकेले दम काफी नहीं है। जरूरी है कि राज्य की पुलिस जैसी एजेंसियां लोकतांत्रिक संवेदीकरण और सामुदायिक रुझान को भी अपनी कार्यशैली का एकीकृत अंग बनाएं। तत्कालीन पुलिस आयुक्त का कहना तकनीकी रूप से बेशक सही हो, पर वह लोगों में सुरक्षा की भावना नहीं भर सकता।
पुलिस ही नहीं, अपराध-न्याय व्यवस्था की अन्य एजेंसियों के कर्मी भी लैंगिक मामलों में एक ऐसा नाकारा हार्डवेयर साबित होते हैं, जो लैंगिक चेतना के आधुनिक सॉफ्टवेयर से मेल नहीं खाता। पुलिस को तो निश्चित रूप से ‘संवैधानिक अनुकूलन’ में गहन प्रशिक्षण की आवश्यकता है।
भारतीय समाज भी बेशक बलात्कारों के दोषियों के लिए बदले भरी सजाओं का पैरोकार रहता है, पर उसे भी यौनहिंसा से मुक्ति में साझेदारी की भूमिका की दरकार है। उसे समझना होगा कि लैंगिक उत्पीड़न ही यौनिक उत्पीड़न की जमीन तैयार करता है। अधिकांशत:, यह स्त्री के दैनिक जीवन का एक हिस्सा है- पैतृक संपत्ति से वंचना; घरेलू हिंसा और अमानुषिक घरेलू श्रम; भेदभाव वाला पालन-पोषण, शादी और कैरियर का थोपा जाना; कार्यस्थल पर उत्पीड़न; निर्णय प्रक्रिया और मुख्यधारा से बाहर होना; पुरुष से कम वेतन; पत्नी की आय को हड़पना; नेतृत्व, सेना, पुलिस, सुरक्षा जैसे उत्तरदायित्वों से मर्दाने मापदंडों के आधार पर स्त्री को वंचित रखना; दहेज-दानव; भ्रूण-हत्या; मॉरल पुलिसिंग; तेजाबी हमले; ‘आॅनर किलिंग’; आश्रित; कमजोर; ‘इज्जत’ की जवाबदेही, एक लगभग अंतहीन सूची है। पर यह सूची ऐसी भी नहीं कि इसका अंत न किया जा सके। लेकिन आज की स्थिति में इनमें से अधिकतर उत्पीड़नों को अपराध की श्रेणी में रखा ही नहीं गया है। समयबद्ध राहत का तो सवाल ही नहीं।
राज्यतंत्र भी कम फंसा हुआ नहीं है। जो समाज यौनिक हिंसा को लेकर इतना उद्वेलित रहता है, लैंगिक हिंसा पर चुप्पी साध लेता है। ये पितृसत्ता के ही दो रूप हैं। यौनिक हिंसा जहां पितृसत्ता के चेहरे पर एक बदनुमा दाग नजर आती है, वहीं लैंगिक हिंसा इसी पितृसत्ता की गतिकी से खुराक पाती है।
इस समीकरण से राज्यतंत्र को पूरी तरह पितृसत्ता के मुकाबले खड़ा होना चाहिए। पर उसमें यह हिम्मत नहीं। दुनिया की कई लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की तरह क्या हमारे यहां भी एक ऐसी दंड-संहिता नहीं होनी चाहिए, जो लैंगिक अपराधों पर घातक वार कर सके? क्या हमें यौन शिक्षा की एक ऐसी सार्वभौमिक प्रणाली नहीं अपनानी चाहिए, जो घर और बाहर के, घात में बैठे, यौनिक खतरों को पहचानने और उनसे उबरने में सहायक हो?
स्त्री सशक्तीकरण की एक पहचान यह भी बनेगी कि सारी सहूलियतें जरूरतमंद के दरवाजे पर चल कर आएं। न्याय भी। यानी पुलिस, अदालत, क्षतिपूर्ति, परामर्श, चिकित्सा, पुनर्स्थापन आदि पीड़ित तक स्वत: पहुंचें, न कि पीड़ित उन तक पहुंचने के लिए दर-दर की ठोकरें खाए। अगर लड़की को पैतृक संपत्ति में किसी भी कारण से हिस्सा नहीं मिलता तो उसका भाग राज्य के हवाले होना चाहिए।
घरेलू हिंसाकर्ता को तब तक के लिए बतौर रोकथाम हिरासत में रखा जाए, जब तक कि पीड़ित उसे भविष्य में पूरी तरह सद्व्यवहार का प्रमाणपत्र न दे दे। शादी या कैरियर थोपना दंडनीय बना दिया जाए। कन्या-भ्रूण गिरने का अगर संतोषजनक डॉक्टरी लेखा-जोखा न हो तो वह एक स्वत: अपराध हो। एक ऐसी ही कठोर दंड संहिता आज भारतीय समाज को चाहिए।
ऐसा नहीं है कि स्त्री अपने ऊपर थोपी जा रही हिंसा का मुकाबला नहीं कर रही। आज इतने सामूहिक बलात्कार इसलिए भी हैं, क्योंकि एक अकेला मर्द ‘शिकार’ पर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। आज रिश्तेदारों, फरेबी साथियों, धर्मगुरुओं और करीबी परिचितों के विरुद्ध मामलों को सामने लाया जा रहा है, क्योंकि कानूनी प्रणालियां लगातार पीड़ित के हक में बदल रही हैं।
यौनिक हमलों में हो रही पाशविकता इस ओर भी संकेत करती है कि पीड़ित के प्रतिरोध ने दरिंदों की ‘मर्दानगी’ को कितनी ठेस पहुंचाई होगी। हालांकि यौनिक हिंसा का जम कर मुकाबला करने वाली स्त्रियां भी लैंगिक हिंसा सहती ही रहती हैं, पर तेजाबी हमलों और ‘आॅनर’ किलिंग का शिकार होने वालों का दृढ़ निश्चय डिगता नहीं है। ऐसे दृष्टांत भी बढ़ते जा रहे हैं, जहां पैतृक संपत्ति में अपना दावा करने के लिए स्त्रियां अदालतों में जा रही हैं।
निचोड़ के रूप में यह कहा जा सकता है कि महज मर्द की नैतिकता और राज्य की सजगता के सहारे स्त्री की रक्षा नहीं हो सकी है। कानूनी और नैतिक प्रणालियां सीमित रूप से ही प्रभावी हो पाती हैं; स्त्री का लैंगिक सशक्तीकरण इसे पूर्णता प्रदान करेगा। जाहिर है, इतने बड़े बदलाव को हासिल करने के लिए पुरुष और स्त्री, दोनों को भावनात्मक पीड़ा और भौतिक परेशानियों के दौर से गुजरना होगा। यही सही।

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