Saturday 28 December 2013

पुलिस सुधार की मरीचिका

Monday, 12 August 2013 10:04
सत्येंद्र रंजन
जनसत्ता 12 अगस्त, 2013: सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से पुलिस सुधारों का मुद्दा फिर चर्चा में है। सात साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधारों के बारे में व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए थे। लेकिन उसका क्या अंजाम हुआ यह इस मामले में न्यायमित्र (एमिकस क्यूरे) की भूमिका निभा रहे महाधिवक्ता जीएम वाहनवती द्वारा न्यायालय को दी गई इस सूचना से जाहिर है कि राज्य सरकारों ने पुलिस सुधारों पर मामूली या न के बराबर अमल किया। अब सर्वोच्च अदालत ने राज्यों से पूछा है कि आखिर बाधा क्या है? अदालत ने कहा कि उसके निर्णय पर समग्र अमल हो, इसके लिए वह और इंतजार नहीं करेगा।
यहां यह याद कर लेना उचित होगा कि 2006 में प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त दिशा-निर्देश जारी किए थे। उसके प्रमुख बिंदु थे- पुलिस महानिदेशक का कार्यकाल न्यूनतम दो वर्ष तय करना, आपराधिक जांच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था के दायित्व से अलग करना, हर राज्य में एक सुरक्षा परिषद और एक पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन। तब कई राज्यों ने यह रुख लिया था कि दिशा-निर्देश के कई बिंदुओं पर अमल नामुमकिन है। तब सिर्फ चार छोटे राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मेघालय और हिमाचल प्रदेश- ने सभी दिशा-निर्देश लागू करने पर रजामंदी जताई थी। बाकी ज्यादातर राज्यों के एतराज व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों थे। तब कुछ हलकों से यह दलील देते हुए आपत्ति की गई थी कि संविधान के तहत कानून-व्यवस्था राज्य-सूची का विषय है और यह कार्यपालिका के अधिकार-क्षेत्र में आता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश देना इस अधिकार-क्षेत्र में दखल में है।
अब एक बार फिर सख्त रुख अपनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिवों को खुद अदालत में उपस्थित होने के लिए बुलाया। इन अधिकारियों ने वादा किया कि वे एक हफ्ते के अंदर अदालत को बताएंगे कि उसके आदेश पर अमल करने की राह में रुकावटें क्या हैं। लेकिन जो कुल परिदृश्य है, उसमें नहीं लगता कि बात कहीं आगे बढ़ेगी। एक अच्छा उद््देश्य प्रक्रियागत आपत्तियों की भेंट चढ़ जाएगा, यह आशंका गहरी है।
मानव अधिकारों की लड़ाई से जुड़े लोग पुलिस सुधार की जरूरत शिद््दत से महसूस करते हैं। वर्ष 1977 में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो पहली बार यह मुद््दा व्यापक चर्चा का विषय बना। मोरारजी देसाई की सरकार ने तब प्रतिष्ठित पुलिस अधिकारी डॉ धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन किया। आयोग ने पुलिस सुधारों के बारे में महत्त्वपूर्ण और विस्तृत सिफारिशें कीं। लेकिन उसकी रिपोर्ट सरकार की अलमारियों में धूल खाती रही। उसके बाद किसी भी सरकार ने लोकतंत्र की इस बुनियादी जरूरत पर ध्यान नहीं दिया।
यह गौरतलब है कि इस मुद््दे पर जनतांत्रिक दायरे में कोई हलचल नहीं है। न ही ऐसा लगता है कि पुलिस सुधार लागू कराने की सुप्रीम कोर्ट की पहल से देश की जनतांत्रिक शक्तियों में ज्यादा उत्साह पैदा हुआ। आखिर क्यों? इसके लिए सरकारों पर सार्वजनिक दबाव इतना क्यों नहीं बना कि वे पुलिस को स्वायत्त एजेंसी बनाने और आम लोगों की शिकायत सुनने की संस्थागत व्यवस्था करने जैसे वांछित सुझावों को मानने पर मजबूर हो जातीं?
इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने के लिए हमें पुलिस सुधारों के पूरे परिप्रेक्ष्य पर समग्रता से विचार करना होगा। असल में पुलिस सुधारों की बहस में दो ऐसे पहलू हैं जिनकी वजह से सुप्रीम कोर्ट की पहल बहुत आगे नहीं बढ़ सकी। इनमें एक पहलू कुछ राज्यों की तरफ से उठाए गए एक वाजिब सवाल से जुड़ा है और दूसरा इस कोशिश के पीछे के बुनियादी सोच पर सवाल उठाता है। पहली वजह यह है कि सुप्रीम कोर्ट का उद््देश्य चाहे जितना अच्छा हो, लेकिन उसने उस दायरे में कदम रखा जो उसका नहीं है।
अपनी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका अपने मनमाफिक विधेयक पेश करने के लिए कार्यपालिका को और उसे पास करने के लिए विधायिका को मजबूर नहीं कर सकती। जबकि ऐसी विधायी प्रक्रिया पूरी हुए बगैर सर्वोच्च के संबंधित दिशा-निर्देश लागू नहीं हो सकते। दरअसल, न्यायालय बड़े नौकरशाहों को तो तलब कर सकता है, लेकिन निर्णय राजनीतिक नेतृत्व लेता है और वह न्यायालय के वैसे आदेश मानने को विवश नहीं है जिसका वैधानिक आधार न हो। पुलिस सुधार कभी मजबूत राजनीतिक मुद््दा नहीं बन सके तो इस खालीपन को सुप्रीम कोर्ट अपनी सदिच्छा से नहीं भर सकता।
बहरहाल, पुलिस सुधार का एक और मौजूदा संदर्भ है, जिस कारण इसको लेकर लोकतांत्रिक जनमत में ज्यादा उत्साह पैदा नहीं हो पाया। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार लागू करने संबंधी आदेश एक जनहित याचिका पर दिया था। इस याचिका से जो नाम जुड़े थे, उनके साथ नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की साख नहीं जुड़ी हुई है। बल्कि वे नाम सुरक्षा-प्रतिष्ठान के उस सोच के ज्यादा करीब हैं, जो बुनियादी तौर पर नागरिक अधिकारों के खिलाफ जाता है।
आप अगर लंबे समय से मानवाधिकार संगठनों के खिलाफ रहे हों, सख्ती को विभिन्न प्रकार के असंतोष से भड़के संघर्षों से निपटने का सबसे सही तरीका मानते हों, फांसी जैसी अमानवीय और अपराध-समाजशास्त्र के गहरे अध्ययन से बेमतलब साबित हो चुकी सजा के समर्थक हों, तो आपकी ऐसी किसी पहल को संदेह से देखने का पर्याप्त आधार मौजूद रह सकता है। यह सवाल कायम रहता है कि क्या इस पहल के पीछे सचमुच जन-अधिकारों की वास्तविक चिंता है?
वैसे भी

पुलिस महानिदेशक का तय कार्यकाल जैसा निर्देश नौकरशाही मानस से निकले सुझावों पर मुहर लगाने जैसा है, जिसका औचित्य संदिग्ध है। प्रश्न है कि क्या लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए राजनीतिक नेतृत्व के प्रति पुलिस की कोई जवाबदेही न होना एक वांछित स्थिति होगी? राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस को मुक्त करने के लिए केंद्र और राज्यों के स्तर पर सुरक्षा आयोग बनाने, पुलिसकर्मियों की सेवा संबंधी सभी मामलों पर फैसला लेने के लिए पुलिस एस्टैबलिशमेंट बोर्ड गठित करने और पुलिस से संबंधित जनता की शिकायतों पर विचार के लिए पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण बनाने के निर्देशों पर अमल से पुलिस के प्रबंधन और प्रशासन में बेशक फर्क आ सकता है। लेकिन इस संदर्भ में कुछ राज्यों की यह शिकायत भी जायज है कि आखिर उस हालत में पुलिस की जवाबदेही किसके प्रति होगी? क्या तब पुलिस सीधे विधायिका के प्रति जवाबदेह रहेगी? कार्यपालिका अगर सुरक्षा संबंधी मामलों में अगर फौरन फैसले लेना चाहेगी तो क्या उसके रास्ते में नई संस्थाएं रुकावट नहीं बनेंगी?
गौरतलब है कि राजनीतिक कार्यपालिका के तहत पुलिस के रहने के नुकसान हैं, तो कुछ फायदे भी हैं। यह ठीक है कि राज्यों में मौजूद सरकारों के हित में पुलिस का उपयोग और कई बार दुरुपयोग भी होता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि पुलिस के कार्यों के लिए कार्यपालिका की जवाबदेही बनी रहती है। एक स्वायत्त पुलिस के कार्यों के लिए आखिर जवाबदेह कौन होगा? यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि हम एक निरपेक्ष माहौल में नहीं रहते। पुलिस विभाग भी समाज के व्यापक सत्ता-ढांचे के बीच बनता और काम करता है। सामाजिक पूर्वग्रह पुलिसकर्मियों में उतना ही देखने को मिलता है जितना कि आम लोगों में। पुलिस की कार्रवाइयों में अक्सर जातीय, वर्गीय और सांप्रदायिक पूर्वग्रह के लक्षण देखने को मिलते हैं। पुलिस के अंदरूनी ढांचे में मौजूदा सामाजिक विषमता का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है।
जब जनतांत्रिक संदर्भ में पुलिस सुधारों की बात होती है तो इस अंदरूनी ढांचे में सुधार भी एजेंडे में शामिल रहता है। सदियों से शोषित और सत्ता के ढांचे से आज भी बाहर समूहों को कैसे उनकी आबादी के अनुपात में पुलिस के भीतर नुमाइंदगी दी जाए और कैसे उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए, पुलिस सुधारों का यह भी एक अहम पहलू है। अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी पुलिस में कैसे बढ़े और पुलिसकर्मियों की कैसे ऐसी पेशेवर ट्रेनिंग हो, जिससे वे सांप्रदायिक तनाव के वक्त निष्पक्ष रूप से काम करें, यह पुलिस सुधार का बहुत अहम बिंदु है।
मगर दुर्भाग्य से न तो पुलिस सुधारों के लिए दायर याचिका में इन बातों की जरूरत समझी गई और न सुप्रीम कोर्ट ने इन असंतुलनों को दूर करने के लिए कोई आदेश दिए। पुलिस की सामाजिक जवाबदेही तय करने का कोई उपाय भी नहीं बताया गया, सिवाय पुलिस शिकायत प्राधिकरण के गठन की बात को छोड़ कर। लेकिन यह गौरतलब है कि अगर मानव अधिकार सरंक्षण कानून-1993 पर अमल करते हुए हर राज्य में मानवाधिकार आयोग बन जाएं और जिलों के स्तर पर मानवाधिकार अदालतें स्थापित हो जाएं तो ऐसे प्राधिकरण की शायद कोई जरूरत नहीं रहेगी।
दरअसल, इस संदर्भ में गौर करने की सबसे अहम बात यह है कि पुलिस सुधार एक राजनीतिक एजेंडा है। यह जन अधिकारों के संघर्ष से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। सामाजिक और आर्थिक सत्ता का ढांचा निरंकुश हो और पुलिस पेशेवर और लोकतांत्रिक ढंग से काम करे, ऐसा भ्रम दक्षिणपंथी आदर्शवाद का ही हिस्सा हो सकता है, जिसमें हवाई मूल्यों की बात दरअसल व्यवस्था में अंतर्निहित शोषण और विषमता को जारी रखने के लिए की जाती है।
अधिक से अधिक यह मध्यवर्गीय खामखयाली हो सकती है, जो अपने समाज के यथार्थ से कटे रहते हुए समस्याओं के मनोगत समाधान ढूंढ़ती रहती है। हकीकत यह है कि भारत या दुनिया के विभिन्न समाजों में जिस हद तक लोकतंत्र स्थापित हो सका है और आम लोगों ने अपने जितने अधिकार हासिल किए हैं, वह राजनीतिक संघर्षों के जरिए संभव हुआ है।
पुलिस सुधारों के लिए भी राजनीतिक संघर्ष से अलग कोई और रास्ता नहीं है। संघर्ष और उससे पैदा होने वाली जन-चेतना सरकारों पर वह दबाव पैदा करती है, जिससे वे कोई सकारात्मक पहल करने को मजबूर होती हैं। पिछले दो दशक का अनुभव कि लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार के लिए अगर मुसलिम वोट अहम होते हैं तो उनके सत्ता-काल में पुलिस दंगों को रोकने का कारगर औजार साबित होती है। वही पुलिस नरेंद्र मोदी के राज में दंगों के समय मूकदर्शक बन जाती है। और जब मायावती सत्ता में होती हैं तो उत्तर प्रदेश के दलितों के प्रति पुलिस का एक अलग ढंग का रुख देखने को मिलता है।
अभिजात मानसिकता इन मिसालों को पुलिस के दुरुपयोग के सबूत के रूप में भी पेश कर सकती है, लेकिन उससे इस तथ्य को ढंका नहीं जा सकता कि पुलिस दरअसल राजनीतिक ढांचे के मुताबिक ही काम करती है। वह तभी जनतांत्रिक ढंग से पेश आती है, जब सत्ता का ढांचा ज्यादा जनतांत्रिक होता है। बेशक, पुलिस को एक हद तक स्वायत्तता मिलनी चाहिए, मगर यह स्वायत्तता पूरे राजनीतिक संदर्भ से अलग नहीं हो सकती। चूंकि सुप्रीम कोर्ट का मूल आदेश इस संदर्भ से कटा हुआ था, इसीलिए उससे ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। आगे भी कुछ होगा, यह संभवत: एक मरीचिका ही है।http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/50430-2013-08-12-04-35-37

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