Monday, 23 June 2014

an open letter to chief justice of india;alok dixit

POSTED BY STOP ACID ATTACKS ON WEDNESDAY, SEPTEMBER 04, 2013
जज साहब,

एक ऐसिड अटैक विक्टिम होने के नाते सबसे पहले आपको शुक्रिया अदा करना चाहती हूं कि तेजाब हमलों पर देश की सर्वोच्च अदालत हमें ‘न्याय’ देने की कोशिशें कर रही है। पिछले सात सालों से कोर्ट लक्ष्मी के मामले की जांच पड़ताल जिस तरह करता रहा है और समय समय पर सरकारों को भी निर्देश देता रहा है उससे यह तो साफ जाहिर होता है कि अदालतें इन अपराधों को लेकर सख्त हैं पर शायद सरकार और समाज अब भी पूरी तरह उदासीन हैं। हम सभी पिछले सालों में टीवी, अखबारों और दोस्तों, अपनों से, सुप्रीम कोर्ट के आर्डर के बारें में सुनते रहते थे और हर बार यही लगता था कि शायद इस बार कोर्ट कुछ ऐसा करेगा जिससे हमारी और हम जैसी कई औरों की जिन्दगी में कुछ सुधार आएंगे। लेकिन, जैसा कि हम सब समझ पाए हैं, हमारी चुनी हुई सरकारें लगातार इतने सालों से कोर्ट का समय खराब करती आई हैं।

(बाएं से) अर्चना, रूपा, शायना और रेनू
इस बार जब कोर्ट के भीतर एसिड अटैक्स के मामले पर सुनवाई चल रही थी, हम सब सुप्रीम कोर्ट के बाहर खड़े होकर अदालत के फैसले का इंतजार कर रहे थे। हमें लगता था कि शायद आपके डर से ही सरकार इन हमलों को रोकने के लिये कोई प्रभावी कानून लेकर आए लेकिन पता चला कि अब अदालतों से भी बच निकलने के तमाम तरीके हमारी सरकारों ने इजाद कर लिये हैं। हम इस पूरी लड़ाई में कहीं बिल्कुल अकेले पड़ गए थे और इस विपत्ति में सरकार ने हमारी कभी कोई मदद नहीं की। ऐसा जताया जाता रहा है कि इस तरह के हमले होते ही नहीं है हमारे देश में। हमें हर बार जब किसी तेजाब हमले की जानकारी मिलती थी तो हम सहम जाते थे। एक ही ख्याल में में कौधता था कि कैसे सहन कर रही होगी वो लड़की इस महायुद्ध को। इतनी हिम्मत रख भी पाएगी वो या नहीं। फिर दुआ करती थी कि काश अगर खुदा है तो उसे ताकत दे कि वो इस आपदा में जिन्दा बच पाए। तन से भी और इस दौरान जो आत्मा पर बीतेगी उस जख्मी मन से भी। हम तो अब तक कुछ आसरे हैं जिन्हे मन में पाले हुए हैं। हममें से कइयों ने हिम्मत भी हारी और कइयों को विदा भी किया हमने। हमारी एक दोस्त तो इस कदर मायूस हो गई कि उसने अदालत से इच्छा मृत्यु ही मांग ली। लेकिन समाज के कुछ लोग उसके साथ आए और हमने उन्हे जीने की इच्छा बनाए रखने के लिये समझा लिया। हममें से कई के हमलावर तो आज भी खुले आम घूम रहे हैं, हमें धमकी देते हैं। हमारे परिवार खौफ में रहते हैं। वैसे तो हमसे से ज्यादातर के परिवार हमसे बहुत दूरी बना चुके हैं। वे हमें अपने साथ रखने में शर्म महसूस करते हैं। मां बाप भाई बहन, साथ में कुछ दोस्त जो समय के साथ जुड़ गए हैं और एक आप जिनसे अभी भी विश्वास नहीं उठा है, केवल इतनी सी ही जिन्दगी बची है हमारी। बहुत दौड़ भाग की है इतने सालों में। शरीर तो जलता ही रहा है और साथ में मन भी जलती रहा कि जो गुनहगार हैं वो बेखौफ हैं, उनकी जिन्दगी में इसका कोई खास फर्क नहीं पड़ा और हम उनको सजा दिलाने की बेवकूफाना जिद में पसीना बहाते रहे। अब तो इतने साल निकल गए हैं, क्या सजा और क्या न्याय।

एसिड अटैक फाइटर सायना और लक्ष्मी
हमें न्याय मिले हैं। हमारी कई दोस्त हैं जिनका केस अब खत्म भी हो गया है। एक बड़ी प्यार लड़की है, हमारे ही ग्रुप की है, लक्ष्मी, आप जानते हैं उसको। उसके ही केस पर आजकल अखबारों और टेलीवीजन चैनलों पर इतनी बातें हो रही हैं। आप उससे कम मिले होंगे, मुकदमों के सिलसिले में व्यस्त रहते हैं आप, हम जानते हैं। पूरी फिल्मी लड़की है वो। उसके बहुत सारे सपने (ड्रीम्स) थे जो अब वहफिर संजोने का साहस उठा रही है। वो इंडियन आइडल में जाना चाहती थी और अब वो फिर से गाना सीख रही है। कानूनी तौर पर उसका केस 2009 में खत्म हो गया था। मुजरिमों को सात साल और दस साल की सजा हो गई। लक्ष्मी अभी 23 साल की है। उसके आठ साल तो अस्पताल और कचहरी में ही गुजर गए। इस बीच में उसके पापा भी नहीं रहे और घर उसे ही चलाना था। एक छोटा भाई है जो कि पिछले चार महीने से टीबी (ट्यूबर क्लोसिस) की क्रिटिकल स्टेज में अस्पताल में है। उसका एक फेफड़ा खराब हो गया है और डाक्टरों ने बचने की उम्मीदें खत्म बता दी हैं। लक्ष्मी अपने चेहरे की वजह से आठ सालों में घर से कभी निकली ही नहीं थी। वो कहती है कि उसकी हिम्मत और भरोसा तो खत्म ही हो गया था। लेकिन उसे घर तो चलाना ही था। बाहर निकली, दसियों जगह नौकरी तलाशी। कही भी नौकरी नहीं मिली क्यूंकि उसका चेहरा खराब है। पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाई वह। कहा जाता है कि लक्ष्मी को 2009 में न्याय मिल गया था लेकिन हम सब दोस्त जो उसके साथ बहुत सारा समय गुजारते हैं, हमें नहीं लगता कि लक्ष्मी को न्याय मिला है। एक हमलावर तो अब जेल की सजा काटकर बाहर भी आ गई है और दूसरा भी अगले दो साल से भी कम समय में वापस आ जाएगा। तब लक्ष्मी पच्चीस की होगी। हमलावर की तो जमानत मिलते ही शादी हो गई थी, ऐसा लगता है मानों समाज उसे ईनाम देने के लिये ही बैठा हो। लक्ष्मी के पास अपना इलाज कराने के लिये पैसे नहीं हैं और फिलहाल तो घर भी उसी की जिम्मेदारी पर है। लक्ष्मी को सरकार की ओर से कोई सहायता नहीं मिलेगी तो आगे कैसे चलेगी उसकी जिन्दगी? आखिरकार लक्ष्मी की जिम्मेदारी कौन लेगा?

मुम्बई में हमारे प्रोटेस्ट की एक फाइल फोटो
हमारी एक दोस्त प्रीती राठी तो सेना की नौकरी ज्वाइन करने मुम्बई गई थी। भीड़ भरे बांद्रा स्टेशन पर दिन के समय, जब बहुत भीड़ होती है, एक अनजान सरफिरा उसे तेजाब से जला कर चला गया। किसी ने उसे पकड़ा नहीं, सारा सिस्टम मिलकर भी पता नहीं लगा पाया कि आखिर वो सरफिरा था कौन। वो आज भी घूम रहा होगा किसी स्टेशन पर। क्या पता वो कब किस पर एसिड डाल देगा। प्रीती एक महीने तड़पते हुए लड़ी और फिर हारकर मर गई। उसकी हिम्मत देखिये कि जब वो आखिरी सासें ले रही थी तब भी वो पूछ रही थी कि वो कब तक नेवी ज्वाइन कर सकती है, नेवी वाले अब उसे ले तो लेंगे ना? सारे देश से 200 लोग सेलेक्ट हुए थे, प्रीती भी उनमें से एक थी। उसकी धाक आस-पड़ोस, परिवार, दोस्तों, सभी में जम गई थी। उसने नौकरी ज्वाइन करने के लिये ना जाने कितनी तैयारियां की थी। नए कपड़े खरीदे थे, ट्रेनिंग के लिये तमाम जूते, बैग, टाई खरीद कर रखा था। उसने छोटे भाई बहनों से भी कहा था कि नौकरी लगते ही वो उन सबकी पाकेट मनी देगी। नौकरी लगने के पहले ही दोस्तों ने उससे पार्टी ले ली थी। ना जाने कितने फोन आए प्रीती को बधाई भरे। प्रीती को ट्रेनिंग पर जाना था, मां इससे ही परेशान थीं। और अचानक ही उनकी बेटी के साथ एक हादसा हुआ और सब कुछ बदल गया। जिस दर्द की उन्होने कल्पना भी नहीं की थी वह खुद उनकी बेटी भुगत रही थी। कई बार तो उन्हे लगा कि कह दें बेटी अब आराम कर लो, मत सहो यह जलते रहने का दर्द। लेकिन बेटी के बिना जिंदा रहने का ख्याल भी बड़ा डरावना था। प्रीती पूरे एक महीने जली। उसकी हिम्मत लौट आई थी लेकिन शरीर में ताकत ही नहीं बची। तेजाब ने सारा शरीर जला दिया था। कलेजा था जो नहीं जला था और उसमें ही हिम्मत थी। वो अकेली पड़ गई, वो नहीं बच पाई। सरकार की कोई प्रतिक्रिया भी नहीं मिली। उनकी डेड बाडी तक को दिल्ली पहुचाने की व्यवस्था तक नहीं हुई। परिवार ने कह दिया कि अब इस शव का वो क्या करेंगे। सरकार से बातचीत के लिये उन्हे घंटों बंगलों के बाहर बैठना पड़ा। जब मीडिया ने यह बात बतानी शुरू की तब महाराष्ट्र के गृह-मंत्री मिले और परिवार को भरोसा दिलाया कि मामले की सीबीआई जांच करवाएंगे, तेजाब हमलों को रोकने के लिये कानून लाएंगे लेकिन वो तो अब तक नहीं आया। सीबीआई की जांच के लिये परिवार अब तक न जाने कितने मंत्रालयों के चक्कर काट चुका है लेकिन जांच फिर भी शुरू नहीं हो पाई है। अब इतनी देर में जांच शुरू होगी तो सीबीआई भी कोई जादू तो कर नहीं देगा। ऐसा भी क्या न्याय कि लगे खिलौना है। लेकिन फिर भी अगर कोई आखिरी किरण हमें आशा की दिखती है तो वह न्यायालय ही है।

लेकिन हम सभी का आपसे एक सवाल भी है। क्या गुनहगार को सजा देना ही न्याय है? अदालत इतने न्याय को ‘जस्टिस’ मानती है क्या? हम लोग ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं कि समझें ‘जस्टिस’ क्या होती है लेकिन जब भी अपने वकीलों से पूछती हूं तो बस यही पता चलता है कि अदालतों के पास बहुत काम हैं और हमारी सुध लेना चाहें भी तो यह उनके लिये आसान नहीं है। इसके उलट हमने ऐसा भी सुना है कि कई अदालतों ने कुछ उपेछितों को गार्जियनशिप दी है। हम तो आपसे अपनी बातें बताना चाहते हैं। आप तक पहुचना इतना मुश्किल है कि लिखना ही एक अकेला रास्ता है हमारे पास। हम कोर्ट कचहरी भी नहीं कर सकते हैं और पहले अनुभवों से ही इतना जान ही चुके हैं कि सरकारें और सिस्सटम नहीं सुधरेगा तो अदालतें भी मुजरिमों का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगी।

सपना- जिनपर 7 अगस्त को दिल्ली के जीटीबी नगर में
दिन दहाड़े तेजाब से हमला किया गया। 
आप रोज तमाम निर्णय देते हो। हम अधिकतर इस बारे में अखबारों में पढ़ते हैं। आपके फैसलों के बारे में पता चलता है कि कई कानून तो आपने ही बनवाए हैं। नेताओं पर आपने नियंत्रण कसा है, ताकतवर मुजरिमों को आपने ही सजाएं दी हैं। इसलिये हमें भी लगता है कि अगर आप कुछ कहोगे तो आधा अधूरा ही सही फिर भी काम तो करेगी सरकार। और आगे शायद यह लड़ाई लड़ी जाएगी कि आपने जो अधिकार दिलवाए थे वो हमें मिले नहीं। हम फिर आपके पास आएंगे और आप एक और बार उनको चेतावनी देंगे जिससे हममें से कुछ को तो न्याय मिलेगा ही। इस तरह कम से कम हम तमाम नए विक्टिम को न्याय दिलवाने में मदद करेंगे।

लेकिन फैसले के बाद भी तेजाब हमले नहीं थमे और हम उन नए पीड़ितों से मिलने गए तो लगा कि सरकारें अब शायद किसी ने नहीं डरतीं। हालाकि जिस समाज में मैं और मेरी जैसी तमाम और लड़कियां दिन रात जिस खौफ और असुरक्षा की जिन्दगी जी रहे हैं, हम जानते हैं कि उसकी चुनी हुई सरकार भी हमारा कितना ख्याल रखेगी। हमारी एक दोस्त कोलकाता में भी है। उसका नाम शबाना है। कुछ ही दिनों पहले हम उससे कोलकाता जाकर मिलकर आए थे। वह एक लड़के से प्यार करती थी और उसे घर पर अपने मां बाप से मिलवाने ले गया था। प्रेमी के पिता और भाइयों ने गुस्से में शबाना को कैद कर उसके मुह में जबरजस्ती तेजाब डाल कर मुह बंद कर दिया ताकि तेजाब भीतर तक चला जाए। शाबाना के बेहोश होने पर उन लोगों ने उसके कपड़े उतार कर उसके शरीर को तेजाब से जला दिया। किसी तरह शबाना बच गई। उस पर हमला करने वाले घर से केवल 1 किलोमीटर की दूरी पर खुलेआम रह रहे हैं। वो शाबाना को राह चलते धमकी देते हैं कि अगर कोई कार्यवाही की तो उसकी बहनों पर भी एसिड डाल कर उनका हश्र् शाबाना जैसा ही कर देंगे। हमारे ही कुछ दोस्त जो इस दौरान परिवार बन गए हैं उसके केस को हाई कोर्ट तक ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन हमें डर है कि इन सब के बीच जो कुछ होगा उसमें कही शबाना और उसका परिवार हिम्मत न हार जाए।

न्याय सिर्फ मुजरिम को सजा देने से नहीं मिलता। अगर पीड़िता को ही परेशान होना पड़ेगा तो फिर न्याय कहां होगा वह। सरकार ने हमारे इलाज की भी व्यवस्था नहीं की है। अब तो हमने दिल्ली को ही अपना घर बना लिया है। हमारे शहरों में तो इलाज की व्यवस्था ही नहीं है और फिर उस समाज में लौट कर भी क्या करेंगे जहां गुनहगार को आराम से पनाह मिली हुई है, उनकी शादियां हो रही हैं,  नौकरियां कर रहे हैं वो और हम जस्टिस की राह देख रहे हैं। सच पूछिये तो यह उम्मीद बहुत कम बची है लेकिन अखबार, टीवी, वकील, दोस्त, जान पहचान वाले, सभी बार बार कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट कभी निराश नहीं करता। हम आपसे उम्मीद करते हैं कि आप हमें सही मायनों में न्याय दिलाएंगे।

हमारी ही एक दोस्त है अनु, हमले में उसकी दोनों आखों की रोशनी चली गई। वो देख नहीं सकतीं और उसके मां और पापा भी इस दुनिया में नहीं हैं। एक छोटा भाई है जिसको खुद अनु ही पाल रही थी। कहते हैं कि अनु को भी जस्टिस मिल गई। आठ सालों तक केस लड़ने के बाद उसके हमलावरों को सजा हो गई। फैसला सुनाते हुए किसी ने भी उसके बारे में एक बार भी नहीं सोचा कि आखिर वो जियेगीं कैसे? इलाज कैसे कराएगीं? खाना क्या खाएगीं और उसके छोटे भाई का क्या भविष्य होगा? उसे ऐसे ही छोड़ दिया गया, फिर कभी किसी ने उससे पूछा भी नहीं कि इतने सालों तक कैसे जिंदा हो। अब अगर यही न्याय है तो क्या आप इस न्याय पर पुनर्विचार नहीं करेंगे? क्या अब हम सबको इसी तरह के न्याय की आशा है? ऐसे तो हमारा हौसला टूट जाएगा, हम जियेंगे किस बहाने? हमको हमारे अपनों ने यही सब कहकर तो इतने सालों तक जिंदा रखा है। वे लोग हमें अब क्या समझाएंगे? अदालतें इतना सम्मान के साथ देखी जाती हैं क्यूंकि वो न्याय करती हैं। अगर ऐसा न्याय मिलेगा तो अदालतों से हमारा भरोसा उठ जाएगा। समाज के लिये यह अच्छा संदेश नहीं है।

सजा देने का पूरा उद्देश्य ही अब खत्म होता जा रहा है। मामले इतने सालों तक चलते हैं, समाज में जो संदेश जाना चाहिये था वो जाता ही नहीं। सजाओं का मतलब ही है कि लोगों को बुरी बातों के लिये कड़ा संदेश देना। लेकिन हमने तो अपने मामलों में इसका ठीक उल्टा देखा है। हर मामले में परिवार गुनहगार को बचाने के लिये अपनी पूरी ताकत लगाता आया है। परिवार के स्तर पर ही संदेश नहीं दिया गया तो सजा का मतलब ही क्या है। हम जानते हैं कि आप समाज को नहीं बदल सकते लेकिन हमने कई बार देखा है कि आप समाज के खिलाफ जाकर भी सच को सच बताते हो। आप सरकारों को निर्देश दे सकते हैं कि वे सामाजिक परिवर्तन की पहल करें। आप तो निर्देशों का सख्ती से पालन भी करवा लेते हैं तो संभव है कि कम ही सही लेकिन प्रयास तो होगा ही। आपके कमेंट अखबारों की सुर्खियां बना देते हैं, इस बात के लिये आप अदालत में चर्चा कीजिये, वह भी कुछ सामाजिक सोच विकसित करेगा। हम तो यही आग्रह करते हैं कि जो इस देरी के लिये दोषी हैं उन्हे बर्खास्त किया जाए। ऐसा करते ही काम की गति थोड़ी बढ़ जाएगी। हम जल्द न्याय की भी गुजारिश कर रहे हैं क्यूंकि हममें से कइयों के हौसले अब फीके पड़ने लगे हैं। फिर भी हम एक दूसरे के साथ समय बिता कर, सुख दुख बाटकर बेहतर जिंदगी की आश में जीने लगे हैं। जब भी किसी नए एसिड अटैक के बारे में सुनते हैं, अपनी जिन्दगी सामने आ जाती है। हर बार दुआ निकलती है कि उस लड़की को दर्द कम हो, इसको वो सब न झेलना पड़े।

(बाएं से) तुबा, रूपा और लक्ष्मी, आईपीएल के एक मैच के दौरान खीचीं गई तस्वीर
एक तुबा है, पन्द्रह साल की है अभी, उसका आधा शरीर जला हुआ है। बीते छह महीने तो उसने कुछ खाया तक नहीं, उसका शरीर कुछ ऐसा पिघला की मुह बंद हो गया, नाक खत्म हो गई, एक आंख पूरी तरह बर्बाद हो गई। हम उससे मिले, इतना भयावह था वो सब कि बस वो आशा कही खत्म सी हो गई। तुबा की आगे की जिन्दगी एक युद्ध होगी जिसमें एक तरफा लड़ाई होगी, जलन और दर्द उसे आगे कई सालों तक मारने की कोशिश करेंगें। ऐसे में उसे हौसले की जरूरत होगी, उसके मां बाप साथ होंगे, दोस्त साथ होंगे और सरकार साथ नहीं होगी। अगर सब कुछ नहीं संभला तो तुबा की लड़ाई एकतरफा हो जाएगी। वो हार नहीं माने और उसकी जैसी हजारों दूसरी लड़कियां लड़ती रहें इसके लिये जरूरी है कि आप साथ दें। हम सरकारों से भी यही दरख्वास्त कर रहे हैं। हमें अभी भी सिस्टम पर भरोसा है। पुलिस कहीं भी रोककर हमारी गाड़ी चेक कर लेती है, दुपट्टे से मुह छिपाए घूमने पर पूछताछ भी कर लेती है लेकिन हम फिर हम उनका साथ देते हैं क्यूंकि हमें सिस्टम पर भरोसा है। हमें लगता है कि राज्य हमारी सुरक्षा कर रहा है, जरूरत पड़ने पर वह हमें मदद करेगा, इसलिये हम इस व्यवस्था को स्वीकार करते हैं। अगर यह भरोसा ही खत्म हो गया कि हम सुरक्षित हैं तो न जाने किस तरह यह सारी व्यस्था चलेगी। कानूनों का सम्मान ही बंद हो जाएगा तो अदालतें और संसद धर्म स्थलों जैसे बन जाएंगें जहां सिर्फ पाखंड और दिखावा ही होता है।

हम जानते हैं कि सरकार हमारे बीच से ही बनती है और बुराइयां खुद हममें हैं। इसलिये हम सरकार से अपील न करते हुए अपने स्तर पर इसे खत्म करने की सारी कोशिशें करेंगे। हम सामाजिक परिवर्तन लाने की कोशिश में लग चुके हैं। हमारे आसपास के समाज में थोड़ा बहुत बदलाव भी आया है। आप भी अगर इस वर्तमान न्याय व्यवस्था को नकार सकें और सरकारों को सिस्टम में बुनियादी बदलानव लाने के लिये राजी कर सकें तो शायद समाज के सबसे जरूर अंग न्याय व्यवस्था को सही मायनों में स्थापित कर पाएंगे। हम अपने भरोसे की सारी ताकत जुटा कर आपको यह पत्र लिख रहे हैं। आपसे अनुरोध है कि आप हमें निराश नहीं करेंगे।

प्रार्थी
एक विक्टम
(जिसने मजबूरी में हथियार उठा लिये हैं)

बिहार की दो बहनें चंचल सोनम और उनके मां बाप। दाईं ओर चश्में और दाढ़ी में स्टाप एसिड अटैक्स अभियान से
आलोक दीक्षित और बाईं ओर बड़े बालों में अभियान के सक्रिय सदस्य अनुराग

(यह पत्र एसिड अटैक का शिकार हुई मेरी दोस्तों के साथ घंटों घंटों वक्त बिता कर, उनके साथ दिन गुजार कर, उनके चेहरों पर मुस्कान और परेशानियां दोनों को समझ कर, आसूं पोंछ कर, जख्मों को कुरेद कर, घर की बोलचाल की ही भाषा में देश की सर्वोच्च न्यायालय को लिखा गया है। मैं एक सर्वाइवर हूं, मुझ पर तेजाब नहीं फेका गया लेकिन समाज में मुझे गहरी चोटें दी हैं। फिलहाल तो मुझे एक इंफार्मर मानें जो कि लिख भर जानता है, जिसके हालात इतने तो बेहतर रहे हैं कि वह स्कूल जा पाया है, जिसको अस्पताल के चक्कर काटने नहीं पड़े हैं और जिसका अदालतों से ज्यादा गहरा सरोकार नहीं हुआ है। मैं एक जर्नलिस्ट था। फिलहाल एक्टिव जर्नलिज्म कर रहा हूं इसलिये मुख्यधारा से बाहर हूं। वहां वैसे भी मेरे भर की भी आक्सीजन नहीं थी। हालाकि मुझे तो ये न्यायालय, चर्च मंदिरों और मस्जिदों जितने ही गैरजरूरी लगते हैं। मैं मानता हूं कि न्याय के इन प्रतीक स्थलों में सिर्फ और सिर्फ भावनाओं और संबधों के साथ खिलवाड़ होता है और समाज की जुर्म के खिलाफ प्रतिरोधकता लगातार गिरती जाती है। मेरी दोस्तों को इन संरचनाओं पर गहरा भरोसा है और इनमें से कई यह मानती भी हैं कि आज के समय में कहीं से न्याय की गुहार सबसे आसान है तो वह न्यायालय है। इस पत्र में गैरजरूरी बौद्धिकता डालने की आवश्यकता नहीं लगी इसलिये फिलहाल वो काम आप पर छोड़ रहा हूं। इससे एक संवाद भी शूरू हो सकेगा और हमारे इस पत्र लिखने का मकसद भी पूरा हो जाएगा। एसिड अटैक पर ही एक प्रोग्राम के दौरान एक टीवी एंकर ने कहा था कि वो अपना शो नुक्कड़ के चाय वाले के लिये चाहते हैं। इसी तरह हमारे सारे दोस्त इस पत्र के जरिये चाहेंगे कि समाज इनके हल्के फुल्के शब्दों के पीछे लिखी बातों को सुनकर थोड़ा शर्मशार हो जाए। हालाकि सारी दोस्त, जो इस विचार के लिये जिम्मेदार हैं, यह जानती हैं कि यह पत्र शायद ही चीफ जस्टिस साहब पढ़ पाएं, हालाकि उनको पढ़ाना हमारा मकसद भी नहीं है।)

जुल्म करने वाले इतने बुरे नहीं होते। 
अदालतें सजा न देकर उन्हे बिगाड़ देती हैं। 

मिलना चाहा है जब भी इंसा से इंसा, 

सियासतें सब खेल बिगाड़ देती है। - राहत इंदौरीhttp://www.stopacidattacks.org/2013/09/an-open-letter-to-chief-justice-of.html


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